सिर्फ मोदी विरोध की चाबुक फटकारने से दौड़ने तो नहीं लगेगी बूढ़ी कांग्रेस

  • सत्य नारायण मिश्र .

यूं दौड़ने तो नहीं लगेगी बूढ़ी कांग्रेस . राहुल और आक्रामक कांग्रेस का दो दिवसीय राष्ट्रीय महाधिवेशन यूं तो कई निहितार्थ दे गया है। लेकिन इन सबसे अलग अन्यथा गिरते जा रहे राजनीतिक शिष्टाचार की अप्रिय गूंज भी दे गया है।

राहुल ने सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर अपने तीर छोड़े। राहुल की भाषा में तीखापन जरूर था, लेकिन संयम के साथ। उसका जवाब देने जिस तरह भाजपा नेतृत्व को अपने चार-चार केंद्रीय मंत्री फटाफट उतारने पड़े, उसने कुछ महीने पहले के पप्पू कहे जाने वाले राहुल की जगह एक अलग ही शख्सियत का अहसास करा दिया है।
हमारा संविधान बोलने की आजादी सबको दे रखा है। दायरे की वकालत सब करते हैं। लेकिन दायरे में खुद रहना शायद ही कोई चाहता हो।

भाजपा नेतृत्व राहुल को हारा हुआ बता रहा है। उसी हारे हुए निराश व्यक्ति की बात से मगर, इतनी मिर्ची क्यों लग गई कि पूरी टुकड़ी ही जवाब देने को उतारनी पड़ गई।

शायद यह भी बदले राजनीतिक शिष्टाचार का एक उदाहरण ही है। कांग्रेस के महाधिवेशन का कोई और एक साफ संदेश निकालना जरा कठिन जरूर है। लेकिन राहुल गांधी की ताजपोशी के बाद कांग्रेस का यह पहला राष्ट्रीय महाधिवेशन था।

इसलिए इसके व्यापक राजनीतिक निहितार्थ की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। एक तरह से पूरे देश में कांग्रेस पराभव की चरम स्थिति से दो-चार है। पार्टी के सामने संगठन को फिर से जीवंत बनाने की महा चुनौती है। राष्ट्रीय स्तर पर और राज्यों में भी उसके पास कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व नहीं है। केवल एक नाम है, सवा सौ साल से अधिक पुरानी और आजादी की लड़ाई
में लड़ने वाली पार्टी का।

गांधी उपनाम का एक पुछल्ला है, जो मौलिक रूप से असली गांधी से किसी तरह के खून का नाता नहीं रखता। जिस नेहरू परिवार से शाखाएं निकलीं थीं, उसको नाम के साथ जोड़ा ही नहीं जाता। भाषणों में जिक्र जरूर होता है। इतना सब होने के बावजूद देश भर में धूमकेतु की तरह उभरती सत्ताधारी पार्टी के नेतृत्व को एक हारे हुए व्यक्ति से कहीं न कहीं खटका तो जरूर
है। नहीं है तो छोड़ क्यों नहीं देते, समय की धुंध में खो जाने को।

कांग्रेस महाधिवेशन पर देश की जनता की निगाह शायद इतनी अधिक नहीं जाती, अगर ऐसी शिद्दत से राहुल पर केंद्रित हमले नहीं होते। स्वाभाविक है कि पूरे देश का ध्यान इस ओर अधिक हो गया। हालांकि इस बात में अभी भी काफी लोगों को संशय ही होगा कि कांग्रेस अपने सामने खड़ी पहाड़ सी चुनौतियों से हाल-फिलहाल पार पा जाएगी।

देखना रोचक होगा कि उसके नए और अपेक्षाकृत युवा मुखिया इन चुनौैतियों से निपटने को कौन सी योजनाएं लाते हैं। देश की जनता को कैसा संदेश देते हैं, जिसके बिला पर वह आश्वस्त हो सके कि उसका भविष्य कांग्रेस के ही हाथ सुरक्षित रह सकता है। तभी खोया हुआ जनाधार वापस आएगा। कांग्रेस नेता-कर्मी निराशा के भंवर से सही मायनों में उबरेंगे।

केवल बातों के बगीचे बांधते रहने से और अधिक फजीहत के सिवाय कुछ हासिल नहीं होगा। केवल मोदी सरकार की आलोचना से कुछ नहीं होने वाला। व्यापक बदलाव के लिए व्यापक और असरदार नीतियों के साथ सामने आना होगा। महज भरोसा जताते रहने से बूढ़ी हो चुकी कांगेस दौड़ने तो नहीं लगेगी।

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