‘बसंती हवा’ वाले कवि केदार को याद करते हुए नमन !

 

आज हिन्दी के कवि केदारनाथ अग्रवाल की जन्मतिथि है (1 अप्रैल, 1911)। ‘बसंती हवा’ वाले उस कवि को तपिस भरी उनकी ही एक कविता के कुछ अंशों के साथ याद करते हुए नमन!

ज़िंदगी

देश की छाती दरकते देखता हूँ!
थान खद्दर के लपेटे स्वार्थियों को,
पेट-पूजा की कमाई में जुता मैं देखता हूँ!
सत्य के जारज सुतों को,
लंदनी गौरांग प्रभु की,
लीक चलते देखता हूँ!
डालरी साम्राज्यवादी मौत-घर में,
आँख मूँदे डाँस करते देखता हूँ!!

देश की छाती दरकते देखता हूँ!
मैं अहिंसा के निहत्थे हाथियों को,
पीठ पर बम बोझ लादे देखता हूँ।
देव कुल के किन्नरों को,
मंत्रियों का साज साजे,
देश की जन-शक्तियों का,
खून पीते देखता हूँ,
क्रांति गाते देखता हूँ!!

……….

देश की छाती दरकते देखता हूँ!
खाद्य मंत्री को हमेशा शूल बोते देखता हूँ
भुखमरी को जन्म देते,
वन-महोत्सव को मनाते देखता हूँ!
लौह-नर के वृद्ध वपु से,
दण्ड के दानव निकलते देखता हूँ!
व्यक्ति की स्वाधीनता पर गाज गिरते देखता हूँ!
देश के अभिमन्युयों को कैद होते देखता हूँ!!

………

देश की छाती दरकते देखता हूँ!
कौंसिलों में कठपुतलियों को भटकते,
राजनीतिक चाल चलते,
रेत के कानून के रस्से बनाते देखता हूँ!
वायुयानों की उड़ानों की तरह तकरीर करते,
झूठ का लम्बा बड़ा इतिहास गढ़ते,
गोखुरों से सिंधु भरते,
देश-द्रोही रावणों को राम भजते देखता हूँ!!

देश की छाती दरकते देखता हूँ!
नाश के वैतालिकों को
संविधानी शासनालय को सभा में
दंड की डौड़ी बजाते देखता हूँ!
कंस की प्रतिमूर्तियों को,
मुन्ड मालाएँ बनाते देखता हूँ!
काल भैरव के सहोदर भाइयों को,
रक्त की धारा बहाते देखता हूँ!!
……….

देश की छाती दरकते देखता हूँ!
मैं बहुत उत्तप्त होकर
भीम के बल और अर्जुन की प्रतिज्ञा से ललक कर,
क्रांतिकारी शक्ति का तूफान बन कर,
शूरवीरों की शहादत का हथौड़ा हाथ लेकर,
श्रृंखलाएँ तोड़ता हूँ
जिन्दगी को मुक्त करता हूँ नरक से!!

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