नवरात्र के व्रत व उपवास के दौरान कैसा हो आहार
- दीप्ति श्रीमाली
- उपवास के दौरान हमें आहार के साथ-साथ अपने व्यवहार को लेकर भी सादगी का परिचय देना चाहिए. व्रत का अर्थ यह नहीं कि अन्न त्याग दिया और चिप्स आदि का सेवन बढ़ा दिया. इससे आपको कुछ और मिले न मिले लेकिन बीमारियां जरूर मिल सकती हैं. ऐसे में अगर आप नवरात्र के व्रत के दौरान सेहतमंद रहना चाहते हैं,तो जरूरी कि आप सावधानियां बरतें –
सब प्रकार के उपवासों का शरीर पर समान प्रभाव पड़ता है। एक बार भोजन ग्रहण करने पर कुछ घंटों तक जो शरीर को खाए हुए आहार से शक्ति मिलती रहती है, किंतु उसक पश्चात् शरीर में संचित आहार के अवयवों-प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और स्नेह या वसा-का शरीर उपयोग करने लगता है। वसा और कार्बोहाइड्रेट परिश्रम करने की शक्ति उत्पन्न करते हैं। प्रोटीन का काम शरीर के टूटे फूटे भागों का पुनर्निर्माण करना है। किंतु जब उपवास लंबा या अधिक काल तक होता है तो शक्ति उत्पादन के लिए शरीर प्रोटीन का भी उपयोग करता है। इस प्रकार प्रोटीन ऊतकनिर्माण (टिशू फॉर्मेशन) और शक्ति-उत्पादन दोनों काम करता है।
- उपवास शुरू करने से एक-दो दिन पहले हल्की डायट ले.
- समय-समय पर छोटे-छोटे मील्स लेते रहे. अगर आप कुछ घंटों के अंतराल में व्रत के समय पर छोटी-छोटी मील्स लेते हैं तो इससे आपके शरीर का ब्लड ग्लूकोज लेवल स्थिर रहेगा और आप थका हुआ महसूस नहीं करेंगे.
- स्नैक्स के तौर पर आपको व्रत के समय नमकीन के पैकेट्स पर ज्यादा निर्भर नहीं रहना चाहिए. इसकी बजाए अगर आप व्रत वाले चिप्स, फ्रूट चाट या खीरे का रायता खाने के तौर पर लेते हैं तो वह आपके लिए ज्यादा फायदेमंद साबित होगा.
- एक उपयुक्त नवरात्र आहार में तमाम तरह के पोषक तत्वों का होना जरूरी होता है। एक आहार में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और मिनरल होने चाहिए. अगर आप व्रत के दौरान किसी विशेष पोषक तत्व की अनदेखी करेंगे तो इसका असर आपकी सेहत पर पड़ सकता है. याद रखिए सेहतमंद रहने के लिए आहार का सही होना बहुत जरूरी है.
- अगर डायबीटीज और हाइपरटेंशन के मरीज हैं, अगर हाल-फिलहाल में कोई सर्जरी हुई है, अगर खून की कमी है, दिल, किडनी, फेफड़े या लीवर के पेशेंट हैं और प्रेगनेंट महिलाएं को 9 दिन का व्रत नहीं रखना चाहिए.
- व्रत में कमजोरी से निजात पाने के लिए कुट्टु का सेवन करना सबसे बेहतर विकल्प माना जाता है. कुट्टु में 70-75 फीसदी कार्बो और 20-25 फीसदी प्रोटीन मौजूद होता है.
- दिन की शुरुआत गुनगुने पानी में नींबू डालकर पीने से करें. इससे आपका सिस्टम डिटॉक्सीफाई होता है और आप स्वयं को अधिक स्वस्थ महसूस करते हैं. गुनगुना पानी पाचन क्रिया को भी दुरुस्त बनाए रखने में मदद करता है. नवरात्र में क्योंकि आप कम मात्रा में भोजन करते हैं, इसलिए पाचन क्रिया का सही रहना बहुत जरूरी है.कार के फल खाए जा सकते हैं। कुछ निर्जल उपवास होते हैं। इनमें दिनभर न तो कुछ खाया जाता है और न जल पिया जाता है। रोगों में भी उपवास कराया जाता है, जिसको लंघन कहते हैं।
उपवास की अवस्था में
शरीर में कार्बोहाइड्रेट दो रूपों में वर्तमान रहता है : ग्लूकोस, जो रक्त में प्रवाहित होता रहता है और गलाइकोजेन, जो पेशियों और यकृत में संचित रहता है। साधारणतया कार्बोहाइड्रेट शरीर प्रतिदिन के भोजन से मिलता है। उपवास की अवस्था में जब रक्त का ग्लूकोस खर्च हो जाता है तब संचित ग्लाइकोजेन ग्लूकोस में परिणत होकर रक्त में जाता रहता है। उपवास की अवस्था में यह संचित कार्बोहाइड्रेट दो चार दिनों में ही समाप्त हो जाता है; तब कार्बोहाइड्रेट का काम वसा को करना पड़ता है और साथ ही प्रोटीन को भी इस कार्य में सहायता करनी पड़ती है।
शरीर में वसा विशेष मात्रा में त्वचा के नीचे तथा कलाओं में संचित रहती है। स्थूल शरीर में वसा की अधिक मात्रा रहती है। इसी कारण दुबले व्यक्ति की अपेक्षा स्थूल व्यक्ति अधिक दिनों तक भूखा रह सकता है। शरीर को दैनिक कर्मों और उष्मा के लिए कार्बोहाइड्रेट, वसा और प्रोटीन, तीनों पदार्थों की आवश्यकता होती है, जो उसको अपने आहार से प्राप्त होते हैं। आहार से उपलब्ध वसा यकृत में जाती है और वहाँ पर रासायनिक प्रतिक्रियाओं में वसाम्ल और ऐसिटो-ऐसीटिक-अम्ल में परिवर्तित होकर रक्त में प्रवाहित होती है तथा शरीर को शक्ति और उष्मा प्रदान रकती है।
उपवास की अवस्था में शरीर की संचित वसा का यकृत द्वारा इसी प्रकार उपयोग किया जाता है। यह संचित वसा कुछ सप्ताहों तक कार्बोहाइड्रेट का भी स्थान ग्रहण कर सकती है। अंतर केवल यह है कि जब शरीर को आहार से कार्बोहाइड्रेट मिलता रहता है तब ऐसिटो-ऐसीटिक-अम्ल यकृत द्वारा उतनी ही मात्रा में संचालित होता है जितनी की आवश्यकता शरीर को होती है। कार्बोहाइड्रेट की अनुपस्थिति में इस अम्ल का उत्पादन विशेष तथा अधिक होता है और उसका कुछ अंश मूत्र में आने लगता है। इस अंश को कीटोन कहते हैं कीटोन का मूत्र में पाया जाना शरीर में कार्बोहाइड्रेट की कमी का चिह्न है और उसका अर्थ यह होता है कि कार्बोहाइड्रेट का कार्य अब संचित वसा को करना पड़ रहा है। यह उपवास की प्रारंभावस्था में होता है। रुग्णावस्था में जब रोगी भोजन नहीं करता तब शरीर में कार्बोहाइड्रेट के चयापचय को जानने के लिए मूत्र में कीटोन की जांच करते रहना आवश्यक है।
लंबे उपवास में
उपवास की लंबी अवधि में संचित वसा के समाप्त हो जाने पर उष्मा और शक्ति के उत्पादन का भार प्रोटीन पर आ पड़ता है। शरीर के कोमल भाग का प्राय: 75 प्रतिशत अंश प्रोटीन से बना हुआ रहा है। उपवास की अवस्था में यही प्रोटीन एमिनो-अम्लों में परिवर्तित होकर रक्त में प्रवाहित होता है। सभी अंगों के प्रोटीनों का संचालन समान मात्रा में नहीं होता है। लंबे उपवास में जब तक मस्तिष्क और हृदय का भार प्राय: 3 प्रतिशत कम होता है, तब तक पेशियों का 30 प्रतिशत भार कम हो जाता है। शारीरिक ऊतकों (टिशूज़) से प्राप्त एमिनो-अम्लों के मुख्य दो कार्य हैं :
(1) अत्यावश्यक अंगों को सुरक्षित रखना और
(2) रक्त में ग्लूकोस की अपेक्षित मात्रा को स्थिर रखना।
प्रोटीन नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ होते हैं। अतएव जब शरीर के प्रोटीन को उपर्युक्त काम करने पड़ते हैं तब मूत्र का नाइट्रोजनीय अंश बढ़ जाता है। उपवास के पहले सप्ताह में यह अंश प्रति दिन मूत्र के साथ लगभग 10 ग्राम निकलता है। दूसरे और तीसरे सप्ताह में इसकी मात्रा कुछ कम हो जाती है। यदि इस नाइट्रोजनीय अंश को बाहर निकालने में वृक्क असमर्थ होते हैं तो वह अंश रक्त में जाने लगता है और व्यक्ति में मूत्ररक्तता (यूरीमिया) की दशा में उत्पन्न हो जाती है। इसको व्यक्ति की अंतिम अवस्था समझना चाहिए।
शरीर में कार्बोहाइड्रेट और वसा के समान प्रोटीन का संचय नहीं रहता। शरीर एक जीवित यंत्र है। इसकी रचना का आधार प्रोटीन है। इस यंत्र की यह विशेषता है कि इसके सामान्य भागों में प्रोटीन उपवासकाल में भी आवश्यक अंगों की रक्षा करते रहते हैं। शारीरिक यंत्र का सुचारु रूप से कार्य करते रहना शरीर में बननेवाले रसायनों, किण्वों (एनज़ाइम्स) और हार्मोनों पर निर्भर रहता है। ये उपवास की अवस्था में भी बनते रहते हैं। इनके निर्माण के लिए शरीर के सामान्य भाग अपना प्रोटीन ऐमिनो-अम्ल के रूप में प्रदान करते रहते हैं, जिससे ये रासायिनक पदार्थ बनते रहें और शरीर की क्रिया में बाधा न पड़े।
प्रोटीन की दैनिक मात्रा प्राय: निश्चित है
स्वस्थ शरीर के लिए प्रोटीन की दैनिक मात्रा प्राय: निश्चित है। एक युवा के लिए प्रति दिन प्रत्येक किलोग्राम शारीरिक भार के अनुपात में लगभग एक ग्राम प्रोटीन आवश्यक है और यह आहार से मिलता है। गर्भवती स्त्री तथा बढ़ते हुए शिशु, बालक अथवा तरुण को 50 प्रतिशत अधिक मात्रा में प्रोटीन की आवश्यकता होती है। इससे अधिक प्रोटीन आहार में रहने से शरीर को उसका विश्लेषण करके बहिष्कार करना पड़ता है, जिससे यकृत और वृक्क का कार्य व्यर्थ ही बढ़ जाता है। प्रोटीन शारीरिक यंत्र की मारम्मत के काम में आता है। अतएव रोगोत्तर तथा उपवासोत्तर काल में आहार में प्रोटीन बढ़ा देना चाहिए। इन सब बातों का पता नाइट्रोजन संतुलन के लेखे जोखे से लगाया जा सकता है। यह काम जीव-रसायन-प्रयोगशाला में किया जाता है। यदि मूत्र के नाइट्रोजन की मात्रा भोजन के नाइट्रोजन से कम हो तब इसको “धनात्मक नाइट्रोजन संतुलन” कहते हैं। इससे यह समझा जाता है कि आहार के नाइट्रोजन (अर्थात् प्रोटीन) में से शरीर केवल एक विशिष्ट मात्रा को ग्रहण कर रहा है। यदि, इसके विपरीत, मूत्र का नाइट्रोजन अधिक हो, तो इसका अर्थ यह है कि शरीर अपने प्रोटीन से बने नाइट्रोजन का भी बहिष्कार कर रहा है। इस अवस्था को “ऋणात्मक नाइट्रोजन संतुलन” कहते हैं। उपवास की अवस्था में “ऋणात्मक प्रोटीन संतुलन” और उपवासोत्तर काल में, आहार में प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में रहने पर, “धनात्मक प्रोटीन संतुलन” रहता है।
रोग के दिनों में हमारे देश में भोजन प्राय: बंद करके वार्जी, साबूदाना आदि ही दिया जाता है। इससे रोगी को तनिक भी प्रोटीन नहीं मिलता, जिससे अंगों के ह्रास की पूर्ति नहीं हो पाती। अतएव शीर्घ पचनेवाली प्रोटीन भी किसी न किसी रूप में रोगी को देना आवश्यक है। बढ़ते हुए बालकों और बच्चों में प्रोटीन और भी आवश्यक है।
उपवास तोड़ने के विशेष नियम
उपवास प्राय: फलों के रस से तोड़ा जाता है। रस भी धीरे-धीरे देना चाहिए, जिससे पाचकप्रणाली पर विशेष भार न पड़े। दो तीन दिन थोड़ा रस लेने के पश्चात् आहार के ठोस पदार्थों को भी ऐसे रूप में प्रारंभ करना चाहिए कि आमाशय आदि पर, जो कुछ समय से पाचन के अनभ्यस्त हो गए हैं, अकस्मात् विशेष भार न पड़ जाए। आहार की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ानी चाहिए। इस अवधि में शरीर विशेष अधिक मात्रा में प्रोटीन ग्रहण करता है, इसका भी ध्यान रखना आवश्यक है।
उपवास प्रारम्भ होने पर नित्य के नियमानुसार भोजन से शरीर को शक्ति प्राप्त नहीं होती, अतएव इसके लिये अन्य उपाय कामें लाने चाहिए-
-शुद्ध वायु और शुद्ध जल का उपयोग।
-शुद्ध वायु में गहरी सांस लेने से प्राणवायु के स्पर्श से रक्त में पहले से उपस्थित विषेले तत्व दूर होते हैं।
-उपवास काल में कोई अप्राकृतिक खाद्य शरीर में नही जाता, अतएव विजातीय द्रव्य रक्त में नहीं मिलते तथा उसकी शुद्धि होती है।
-धूप-स्नान से शरीर को अनेक विटामीन मिलते हैं तथा रोगों के कीटाणु नष्ट होते हैं।
-उपवास काल में अधिक पानी पीना चाहिये, जिससे कि अधिक मूत्र विसर्जन के माध्यम से शरीर से अधिक गन्दगी बाहर हो। मूत्र गुर्दो में रक्त छनकर बनता हैं, अतएव रक्त में जल की अधिकता होने से अधिक गन्दगी साफ होती है।
-उपवास शारीरिक स्थिति एवं रोग के अनुसार 2-3 दिन से लेकर निरन्तर दो मास तक किया जा सकता हैं। एक सप्ताह से अधिक का उपवास लम्बे उपवास की श्रेणी में आता हैं।
-लम्बा उपवास अत्यन्त सावधानी पूर्वक विधिवत किया जाना चाहिए, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि का भय रहता हैं।
-लम्बे उपवास तोड़ने में काफी सावधानी बरतनी चाहिए। नींबू के पानी या सन्तरे-मौसमी आदि के रस से तोड़ना चाहिए।
– एक दिन तक मौसम के फल लेने चाहिए।
-जितने दिन तक उपवास किया गया हो, उसके चौथाई समय तक फल लेने चाहिए, तदुपरान्त अन्न खाना चाहिए।