जिनको जैसा परखा : अजित पुष्कल
अजित पुष्कल के 86वें जन्मदिन पर अनंत शुभकामनाएं
- गोपाल गोयल
अजित पुष्कल यानी कि जनकवि केदार नाथ अग्रवाल के शिष्य इकबाल बहादुर श्रीवास्तव, जिन्होंने अजित पुष्कल नाम से कविताएं लिखना शुरू कीं। बाँदा के निवासी होने के नाते सबसे पहले केदार जी के संपर्क में आए। इसके बाद निराला, नागार्जुन, शमशेर तथा त्रिलोचन जी की कविताओं और उनसे निजी संपर्कों की वजह से अजित पुष्कल की प्रगतिशील चेतना निरंतर विकसित होती रही।
● 8 मई 1935 को बाँदा जनपद के गाँव पैगम्बर पुर में जन्मे इकबाल बहादुर श्रीवास्तव ने अजित पुष्कल नाम से कविताएं लिखना शुरू किया। 1957 से उनकी रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। आगे चलकर उन्होंने कविता के अलावा कहानी, उपन्यास तथा नाटक भी लिखे। उनके 4 उपन्यास, 2 कहानी संग्रह तथा 5 नाटक संग्रह प्रकाशित व मंचित होने पर उनको श्रेष्ठ लेखन के लिए “उत्तर प्रदेश संगीत नाट्य अकादमी” का सम्मान भी प्राप्त हो चुका है।
● अजित पुष्कल की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है, “जिनको जैसा परखा”। यह पुस्तक~ संस्मरण, पाठकीय कथन, आत्म रचना तथा बातचीत की अनूठी पुस्तक है।
● यदि अनुक्रम की बात करें, तो संस्मरण के अंतर्गत सर्व प्रथम केदार नाथ अग्रवाल के संस्मरण “आग_और_बर्फ_की_वसीयत” शीर्षक से हैं, इसके आगे “बाबा_बस_बाबा_थे” शीर्षक से बाबा नागार्जुन के संस्मरण, “संसर्ग के वे दिन” शीर्षक में बद्रीनाथ तिवारी के संस्मरण, “साहित्य और कला का किसान” शीर्षक में भाऊ समर्थ के संस्मरण तथा “कैमरे की भाषा का कवि” शीर्षक मे केदार जी के पुत्र अशोक कुमार से संबंधित संस्मरण हैं।
● “पाठकीय कथन” खंड में कमलेश्वर, गुलजार, सर्वेश्वर तथा हरिशंकर परसाई की चर्चा है। तो “आत्म रचना” खंड में “मैं अपनी नजर में” और “गर्दिश के दिन” शीर्षक से अपनी व्यथा कथा की चर्चा की है लेखक ने।
● वस्तुतः “जिनको जैसा परखा” पुस्तक के आलेख लेखक के मन के बोध के बेतरतीब सफर की अभिव्यक्ति है। वैसे तो जिंदगी भी बेतरतीब ढंग से गुजरती चलती है, फिर भी मनुष्य अपने विवेक रुचि और स्वभाव के अनुसार बहुत सी घटनाओं, व्यक्तियों तथा ज्ञान सामग्री को परखता हुआ उन्हें ग्रहण कर अपनाता चलता है। उसी तर्ज पर लेखक ने भी अपनी साहित्य की यात्रा में समय-समय पर जो कुछ जिस रूप में अपनाया, उन्हें शब्द बद्ध कर दिया है, जो कई विधाओं में यहाँ संचयित है। इन्हें समीक्षा नहीं कहा जाना चाहिए। परखना समीक्षा की कसावट से मुक्त चीज होती है। इस पुस्तक में अजित पुष्कल के तीन अप्रकाशित लेखों में सबसे महत्वपूर्ण लेख है ~ “केदार की कविता की मनोभूमि बाँदा”।
● “केदारनाथ अग्रवाल ~ आग और बर्फ की वसीयत” नामक शीर्षक के संस्मरण मे अजित पुष्कल लिखते हैं कि ~~ ” केदारनाथ अग्रवाल पर संस्मरण लिखना भी टेढ़ी खीर है, क्योंकि संपर्क में आने के बाद ऐसा लगा कि वे तो एक गहरे जलाशय की तरह हैं। गहराई में उतरिए, तब कुछ मिले। •••••• स्वभाव में बर्फ की सी शीतलता और अनुशासन में वैसा ही कड़ापन। बेहद सहानुभूति का पिघलाव। जब तक उस बर्फ के नीचे की आग न पकड़ पावे, तो कोई क्या लिखे ? कभी-कभी नागार्जुन की कविता की ये पंक्ति ~ “तुम्हे भला क्या पहचानेंगे बाँदा वाले” मुझे बान की तरह छेदने लगती। •••• एक सही आदमी बने रहना केदार जी की नियति है। उनके कवि की नियति है। वह कवि और कविता को अलग-अलग नहीं मानते। गलत आदमी की कविता गलत संबंधों को उपजाती है और ऐसी कविता कभी सार्थक नहीं हो सकती, इसीलिए उनके जीवन में जब कभी ऐसी स्थिति आती हैं, वे बहकते नहीं, डगमगाते नहीं, उसके परिप्रेक्ष्य में सत्य को खोजते हैं, जैसा कि उनकी इस कविता से स्पष्ट हो जाता है~~~ मैं हूँ/ आग और बर्फ की वसीयत/ मौत जिसे पाएगी जीवन से लिखी/ मैं हूँ अनास्था पर लिखा/ आस्था का शिलालेख/ नितांत मौन/ किन्तु सार्थक और सजीव। ••••• मुझे इस कविता के एक एक शब्द में उनका व्यक्तित्व विकीर्ण होता दिखता है।•••••• शायद केदार का व्यक्तित्व अंजुली में भर लेने वाला समुद्र है भी नहीं। •••• प्रारंभ से ही मैं केदार जी में एक बात देखता रहा हूँ कि वे हर समय संवेदनात्मक स्तर पर वस्तु का अनुभव करते हैं। मैं तो जैसे अब भी कुछ नहीं कह पाया, जो कहना चाहता हूँ, कभी नागार्जुन ने अपनी कविता में चंद सतरों में ही कह दिया है~~ केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो / कालिंजर का चौड़ा सीना, वह भी तुम हो / ग्राम वधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो / कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहे, वह भी तुम हो / खड़ी सुनहली फसलों की छवि छटा निराली, वह भी तुम हो / लाठी लेकर कल रात्रि में करता जो उनकी रखवाली, वह भी तुम हो।
● यदि किसी को केदार नाथ अग्रवाल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों को बहुत गहराई से देखना, समझना तथा जानना और पढ़ना है, तो अजित पुष्कल का लिखा 14 पृष्ठ का अद्भुत संस्मरण अवश्य ही पढ़ना चाहिए।
● इसके अतिरिक्त इसी पुस्तक में ~ “केदार की मनोभूमि: बाँदा” शीर्षक से लिखित संस्मरण मे अजित पुष्कल बताते हैं कि ~ मैं जब भी केदार जी की कविताओं से गुजरता हूँ, तो जिस लोक का बोध जगता है, वह बाँदा ही होता है। मैं बाँदा का हूँ। •••• केदार की कविता में जिस तरह के बाँदा के प्राकृतिक स्थल और वहाँ की शोषित जनता के चित्र उभरते हैं, तो ‘मेघदूत’ का परिदृश्य उभर आता है। •••• प्रकृति का मानवीयकरण करने में कवि को शुरू से रुचि थी केन हो, पेड़ हो, फूल हो या हवा मानवीकरण से संपृक्त हैं। •••• कोई छोटी पहाड़ी थी, वहाँ बैठकर ‘वसंती हवा’ कविता लिखी एक नटखट युवती के रूप में हवा दिखती है। जब जहाँ चाहती, घूमती है। नदी में, रेत में, गाँव बस्ती में, महुए के पेड़ पर चढ जाती है। गेहूँ के खेतों पर लहरा मारती है। अलसी के फूल की कलसी को गिराने की कोशिश करती है, न जाने कितनी क्रियाएं करती है। •••• इस संस्मरण में केदार जी से साक्षात्कार जैसी बातचीत का भी रोचक वर्णन है, जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है, इस दृष्टिकोण से भी यह पुस्तक एक मूल्यवान पुस्तक और जीवंत दस्तावेज है।
● “नागार्जुन ~ बाबा बस बाबा थे” शीर्षक संस्मरण में बाबा नागार्जुन के जीवन के बहुत सारे अनछुए पहलुओं की जानकारी इस संसमरण में है। •••• अपने परिवार से दूर रहकर भी बाबा का परिवार क्षेत्र बहुत बड़ा था। वह जहाँ जाते, जिसके साथ ठहरते, पारिवारिक संबंध बना लेते। •••• 1959 में मेरी उनकी पहली मुलाकात रीवा में हुई। ••• नागार्जुन ने प्रारंभिक दिनों में रेल के डिब्बों में घुसकर यह सुख लिया। वह बंद मुट्ठी में अंगुलियों की थाप देकर लोगों को अपनी कविताएं सुनाते थे और उनको अपनी कविताओं की “कितबिया” बेचा करते थे। वे जनकवि होने की शर्त पूरी कर चुके थे, तभी अपने श्रोताओं के समक्ष मंच पर नाचने का हौसला रखते थे। ••• बाबा नहाते कम थे, पर दाँत बड़ी देर तक माँजते थे। दमा के डर से जाड़े में तो चिरइया स्नान से काम चला लेते। •••• बाबा के साथ हम लोगों का पच्चीस तीस साल का संसर्ग रहा। बहुत मुश्किल है स्मृति में सब कुछ संजोकर रखना ••••।
● इन दो अति महत्वपूर्ण संस्मरणों के अतिरिक्त उपरोक्त वर्णित तीनों अन्य संस्मरण भी साहित्य के जिज्ञासु पाठकों के लिए एक अच्छे कोष से कम नही हैं। शोधकर्ताओं के लिए तो ये संस्मरण सचमुच बहुत दुर्लभ उपलब्धि हैं।
● “पाठकीय कथन” खंड में ~~~ “हरिशंकर परसाई ~ पात्रों के बहाने परसाई की खोज” संस्मरण अत्यधिक उल्लेखनीय है। ••• ” मैने देखा कि परसाई की रचनाएँ लोग कंठस्थ किए हैं। कविता का कंठस्थ होना समझ में आता है, मगर गद्य को कंठस्थ कर लेना आसान नहीं है। इससे ही लेखक की शक्ति का अंदाजा होता है तथा लेखन की प्रासंगिकता का अनुमान होता है, जो आज के जीवन संदर्भों से जुड़ा है। ••• परसाई द्वारा लिखी कहानियों से भी लोग अपनी बात की पुष्टि करते हैं। जनजीवन में किसी लेखक के गद्य का ऐसा प्रवेश उसके जनवादी होने का सबूत है। •••• व्यंग्य मात्र मनोरंजन नहीं करता। इस बहाने वह जीवन के रूबरू खड़ा होकर विसंगतियों को उभारता है। चिढ़ाता है। चोट करता है। सोचने को मजबूर करता है और सबसे बड़ी बात यह है कि वह व्यंग्य पाठक को नैतिक विजय की अनुभूति से लैस करता है। व्यंग्यकार के अंदर भी बेचैन आत्मा होती है, जो जरा से खटके में चौकन्नी हो जाती है और व्यंग्य के प्रति आक्रामक मुद्रा अख्तियार कर लेती है। यह मुद्रा चेतनासंपन्न दृष्टि के कारण बनती है। •••• परसाई ने ढोंगी साधुओं की तरह रूप को औघड़ नहीं बनाया, औघड़ व्यक्तित्व बनाया। क्योंकि औघड़ाई से एक खास तरह का जीवट पैदा होता है और निर्भीकता और निसंगता आती है। •••• किसी भी कहानीकार ने परसाई जैसे प्रयोग नहीं किए हैं।
● यदि बात करें “आत्म रचना” खंड की, तो इसके दोनों आलेख लेखक अजित पुष्कल के जीवन संघर्ष की कथा व्यथा हैं। “मैं_अपनी_नजर_में” वे बताते हैं कि ~ दलितों और शोषितों के प्रति बचपन से ही उसकी हमदर्दी रही है। •••• आज भी असहाय और शोषितों के लिए वह उठ खड़ा होता है और पूरे समाज से लड़ जाने का अहंकार जागृत कर लेता है। ऐसा करने में उसे ठाले बैठे जान माल का खतरा भी हो चुका है। मगर कुछ भी हो, कहीं भी हो, इन्सानियत की रक्षा के लिए विद्रोह तो करना ही है। •••• जिंदगी की सहज और स्वस्थ परंपरा से उसे बहुत लगाव है मगर मध्यवर्ग में उसे ऐसी संभावना कम दिखती है। •••• लिखने के लिए वह झगड़ता है, चुनौती स्वीकार करता है। कलम को व्यवस्था के विरुद्ध एक अस्त्र समझता है। इसी क्रम में दूसरा आलेख है ~ गर्दिश_के_दिन। अपने जीवन के विभिन्न उतार चढ़ाव और संघर्षों की बात बताते बताते भी लेखक अजित पुष्कल अपने मूल उद्देश्य से नहीं भटकते। वे बताते हैं कि मैं उन लेखकों को अपनी आस्था के दायरे में पाता हूँ, जो व्यवस्था से उत्पन्न असंगतियों से संपर्क करते हुए परिवर्तन की भूमिका बनाने में रत हैं। ऐसे लेखकों की रचनाएं पढ़कर मैं स्वयं की अकेलेपन की विडंबना से बच जाता हूँ।••• साहित्य के पहाड़ के नीचे मैं ऊंट की सी लघुता लिए खड़ा हूँ। पता नहीं मेरा यह बोध मेरी हीनता है या संभावनाओं की खोज का मार्ग । आम आदमी के अनुभवों से मेरे अनुभव भिन्न नहीं है।••• यह गर्दिश के दिन कुछ न पूछिए ! कभी-कभी यह दिन इतना दे जाते हैं कि पाने वाले की झोली फट जाती है और कभी-कभी अंदर से कितना खाली कर जाते हैं कि जिंदगी परेशानियों से बंधी पक्की गांठ सी लगने लगती है।
● अंत में लेखक अजित पुष्कल से तीन लेखकों द्वारा लिए गए साक्षात्कार हैं “बातचीत” खंड में। ये तीनों साक्षात्कार एक लंबे कालखण्ड का इतिहास हैं। इनमें बातचीत भले ही अजित पुष्कल से हो रही है, बेशक सवाल जवाब भी उन्ही से हो रहे हैं, लेकिन उसका फलक इतना व्यापक हो जाता है कि लगभग पचास साठ साल की समूची साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाओं का एक बेहतरीन और उपयोगी दस्तावेज हमारे लिए सुलभ हो जाता है।
● हमें गर्व है कि अग्रज लेखक अजित पुष्कल ने अपने हस्ताक्षर सहित यह पुस्तक हमें भेंट की है। हम उनके शतायु होने और सक्रिय रहने की कामना करते हैं।
गोपाल गोयल की फेसबुक वाल से ● बाँदा 8 मई 2021