गीत फ़रोश वाले भवानी प्रसाद मिश्र !
-टिल्लन रिछारिया
गीत फ़रोश वाले भवानी प्रसाद मिश्र ! I इतना लिखा गया है आपके बारे में कि अब क्या बचा है लिखने के लिए । …71 – 72 में जब बांदा डिग्री कालेज में थे तो डॉ रणजीत की कविताओं की किताब हाथ लग गई , ये सपने ये प्रेत … उसी की नकल शकल कर 20-25 कविताएं स्कूल की कॉपी में लिख कर डॉ रणजीत जी को ही दे दी …आप की कविताओं के असर से कुछ जोड़ तोड़ हमने भी की है । हफ्ते भर बाद जब उनसे प्रतिक्रिया ली तो बोले , आप भारती जी और भवानी बाबू को पढ़ो । तब पहली बार भवानी प्रसाद जी का नाम सुना , फिर बुनी हुई रस्सी पढ़ी ।… फिर दिल्ली मे नमिता जी की शादी के दौरान दर्शन हुए ।…मैं किसी के कृतित्व से ज्यादा उसके व्यक्तित्व को निरखता हूँ …उनका ब्लेड लगा कंघा देखा , बताया …यार जमाना हो गया नाई से बाल कटवाए हुए । और हम देह पर साबुन भी नहीं लगाते , शैम्पू वैम्पू की तो बात ही अलग । खाने के बाद बर्तन वाश बेसिन मे रखने की आदत भी उनके साथ खाने बाद उनकी सीख से ही पड़ी । कविता तो उनकी जोरदार हैं ही , उनकी छोटी छोटी बाते भी किसी कविता से कम नहीं ।…दिल्ली के बाद रामायण मेला चित्रकूट में मिले , बम्बई में मालनी बिसेन जी के यहां रुके थे तो शरद जोशी जी साथ ले गए थे । अकेले उनकी ही कविताओं का पाठ था , बोले तुम भी तो लिखते हो , सुनाओ , कुछ सुनाया तो जोशी जी ने चुटकी ली , भवानी दद्दा , इन्हें ‘ श ‘ और ‘ स ‘ का सही उच्चारण तो सिखाओ । हमे’ पता होता कि ये कविताई भी करते हैं तो हम अपनी पत्रिका में न रखते । उनदिनों हम सम्पादक शरद जोशी जी के साथ हिंदी एक्सप्रेस में थे । भवानी प्रसाद की त्रिकाल संध्या की काफी चर्चा रही पर हमें …सतपुड़ा के घने जंगल ज्यादा पसंद । ये विभूतियाँ हमारी आप की स्मृतियों में हमेशा अजर अमर रहेंगी ।
सतपुड़ा के घने जंगल।
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।
सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढँक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनोने, घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
अटपटी-उलझी लताऐं,
डालियों को खींच खाऐं,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाऐं।
सांप सी काली लताऐं
बला की पाली लताऐं
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल|
अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फ़ूंस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूंज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
उँघते अनमने जंगल।
जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।
क्षितिज तक फ़ैला हुआ सा,
मृत्यु तक मैला हुआ सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल|
धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।