एक शख़्स जाना अजाना !
टिल्लन रिछारिया
एक ऐसा शख़्स, जिसके बारे में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता !… जानता तो इसे बचपन से हूं, स्कूल कालेज में भी इसके साथ रहा… नाटक, रामलीला, कविता, पत्रकारिता करते हुए इसे देखा । बेमतलब की हांकते हुए, अंट शंट सोचते हुए, सपनों के किले बनाते हुए अक्सर इसे पाया । इसका कोई खास नहीं, इसे औरों से कोई आस नहीं ।मतलब यह नहीं कि इस पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही । यह अपने जीवन में आये तमाम छोटे बड़े खुदाओं का शुक्रगुज़ार है ।
पढ़ाई लिखाई में राम भरोसे, खेल कूद में भी कच्चा कच्चा, न ये ज्यादा किसी को जानता हैं, न लोग इसे ज्यादा जानते हैं, ये खुद भी खुद को नहीं जानता । आता जाता कुछ नहीं पर बना फिलास्फर घूमता है । कहता है, ‘ आनंद की चाह की राह में चिंतन और विचार सर्वथा वर्जित है । ‘
इसका पहला प्यार चित्रकूट, दूसरा बम्बई और तीसरा खुद को बताता है । कहता है, ‘ खुदी कर बुलंद इतना कि कम से कम बुलंद शहर वाले तो खुद ही पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है ।’ प्यार के इज़्हार में बच्चा है, अपनी नज़र में चच्चा है ।
अपने पे मुग्ध रहता है, खोया खोया रहता है । मन से उपकारी है, बेमतलब ऐंठने की बीमारी है । ऐसा कोई नहीं, यह किसी के लिए बेचैन नही ।… कहता है, ‘ जो भी से प्यार से मिला हम उसी के हो लिए ‘ दोस्तों का मेला रहा नहीं लेकिन कभी रहा अकेला नही…आलोक, अरुण, मुकुंद, गणेश, राजू, लोकेश अनन्य हैं बाकी सब नगण्य हैं । पतंजलि के आचार्य बालकृष्ण लुभाते हैं, परमार्थ के स्वामी चिदानंद राह दिखाते हैं ।
बचपन की पाठशाला ‘ बाल विद्यालय ‘ के सपने आते हैं, उसी विद्यालय में अध्यापकी के दिन याद आते हैं, जिन्होंने कान पकड़ के पढ़ाया फिर बाद मे उन्हीं ने संग संग अध्यापकी करते हुए जीवन जीने का ढंग सिखाया । कालेज की पढ़ाई के दिन बरबस याद आते है, सपनों में अभी भी ये चित्रकूट इंटर कालेज पढ़ने जाते हैं ।
जन्मभूमि चित्रकूटधाम करवी से अब कहने भर का नाता है, स्मृतियों के जंगल में जब यह शख़्स फंस जाता है तो जो गुनाह किया नहीं बेमतलब उसकी भी सज़ा पाता है । ये कभी भी कोई योजना नही बनाता है, कहता है योजना बनाते हुए लोग पकड़ा जाता है । गंभीरता से परहेज है, तरह तरह के आइडिया से लबरेज हैं ।
अपने बारे में लिखता है… ‘ बुनियादी तौर पर मैं… रस, रंग, कविता और अभिनय के फोर्स व फ्लेवर से संचालित रहा हूँ । मेरी किसी भी किसिम की रचनात्मकता में, समय, समाज और सभ्यता का स्पष्ट वेग रहा है । अपने पहले कृतित्व स्व संपादित पत्रिका ‘ इन्द्रधनुष ‘ ( सन 1975 में संपादित-प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ) और बाद में बम्बई के दौर में हिन्दी एक्सप्रेस, श्री वर्षा, करंट और धर्मयुग के सम्पादकीय-कर्म में ये गुण-तत्व बराबर निखार पाते रहे ।’ चक्रम ‘ और ‘ मेट्रो टाइम ‘ (ये दोनों अखबार क्रमश जून 1987, इलाहबाद और मई 1991, दिल्ली ) के प्रकाशन दौरान ये और निखार पर आए । लेखन-सम्पादन से ज्यादा रुचि कांसेप्ट, प्लानिंग, लेआउट और प्रेजेंटेशन में रही । जिसका भरपूर प्रवाह राष्ट्रीय सहारा के ‘ उमंग ‘ और ‘ खुला पन्ना ‘ में 1991 से 1995 तक प्रदर्शित है । भाषा की रवानी, कथ्य की कहानी, आकषर्क फोटो और ग्राफिक्स से सजे… धर्मयुग, करंट, राष्ट्रीय सहारा के उमंग और खुला पन्ना के वे पन्ने हालाँकि इतिहास के झरोखे से उन लोगों के जेहन में अभी भी झांकते हैं जो उस दौर के हिन्दी-प्रवाह के साथ आँख खोल कर चले और आज भी अतीत की उस श्रेष्ठता को सराहने में झेंपते नहीं ।… और मैं… मैं तो बराबर बेचैन रहता हूँ… नए कैनवास की तलाश में… जहाँ बार बार सृजन का नया बसंत रचा जा सके । कागज़ हो, या कैनवास, पिक्चर ट्यूब हो या वेब जनित फलक प्रक्षेपण का आगाज हो तो नए और समयाकूल तीर अभी भी तैयार हैं मेरे तरकश में।… नया कुछ रचने के लिए।… डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ महावीर अधिकारी, शरद जोशी का सान्निध्य और रचना-संजाल अभी भी जीवंत है !… धारदार है !!… अपनी सोच, समझ और अभिव्यक्त्ति की क्षमता, रस, रंग, और कविता के फोर्स और फ्लेवर से अभी भी लबरेज और तरोताजा है ।’
जो आज अभी है , जाहिर है वो अगले पल नहीं रहेगा, ये पल भी सपने मे मिली संपदा हैं, जागते ही गुल हो जायेगें । जो भी मिलेगा सब छूटेगा, जो पाया उससे मोह कैसा… अपना काम सिर्फ काम, हम सब की पल दो पल की कहानी है । इस पार और उस पर की चिंता किसे नहीं होती, इन्हें भी है –
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरा लहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झाने वाली कलियाँ
हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
ये जनाब कहते हैं, न ये भूत हैं न भूतपूर्व… जो भी हैं सिर्फ वर्तमान है, कल भी इनका विजिटिंग कार्ड ‘ चित्रकूट ‘ था आज भी ‘ चित्रकूट ‘ ही है । अपनी काबलियत का कोई कागजी प्रमाण पत्र इनके पास नहीं । स्कूली दस्तावेजों में ये ‘ शिव शम्भू दयाल रिछरिया ‘ दर्ज हैं । बचपन में ये टिल टिल कर रोते थे तो इनकी कहारिन ने इन्हें टिल्लन कहना शुरू कर दिया जो आज इनकी पहचान का नाम है । कहते हैं, जीवन तो सिर्फ चलने का ही नाम है । कितने मोड़, कितने पड़ाव, कितने आकर्षण, कितने विकर्षण। कभी आप मेले में होते हैं, कभी अकेले ।
कभी कभी ख़ुशी को बांटने वाला ही कोई नहीं होता… ऐसा अहसास इस जातक को बम्बई की नौकरी की पहली तनख्वाह मिलने पर हुआ था… लगा कि आज कोई जेब काट ले ।
माया नगरी बम्बई इनके आकर्षण का केंद्र रही और सिनेमा का इश्क धड़कता रहा ।.. सन 1970 में तो सिनेमा ने इन्हें खींच ही लिया था अपने आगोश में, एक नई फिल्म ‘ किस किस को प्यार करूं ‘ से इनको भी चुने जाने का पत्र मिला था, तब सिनेमाई नाम लवेंद्र रखा था इन्होंने, तब इनके पिता जी ने कहा था, टिल्लन क्या बुरा है । सन 1980 में ये बम्बई गए पर फ़िल्म के लिए नहीं पत्रकारिता के लिए । इन्होंने सोचा कि एक दो फिल्मों मे 2-4 मिनट का रोल मिल जाने से क्या होगा, एक्टिंग का शौक है तो एक्टिंग करने से कौन रोकता है ।… कहते हैं, तब से ये विभिन्न पड़ावों में मिली भूमिकाओं के साथ जीवंत एक्टिंग ही कर रहे हैं ।
कितनों से प्रीति जगाई, कितनों से नाते जोड़े, तोड़े, कितने घर द्वार छोड़े, कितनों से मुंह मोड़े, न वो मरे न हम, कौन किसके लिए मरता है ।… दुनिया ऐसे ही चलती है, ऐसे ही चलेगी । मन में लहरें उठेंगी, मन मारने से मन मरता नहीं… मन की सुनें, सुखी रहेंगे। मन तो अभी भी मुम्बई नहीं बम्बई में रहता है । हमारे बालपन के किस्सागो उस्ताद खलीफा टेलर मास्टर ने बम्बई की जो छवि हमारे जेहन में चस्पा की थी वह बड़ी दिलफ़रेब थी ।… बम्बई, अरे बम्बई की क्या बात है… सड़कें इतनी चिकनी कि सिक्का गिरे तो मीलों फिसलता जाए और इमारतें इतनी ऊंची कि… लोग ऊपरी मंज़िल से सिगरेट सुलगा लें ।… समंदर का किनारा, जश्न में डूबी रातें , सिनेमा के सितारे और अगर किस्मत खुल गयी तो लाखों के वारे न्यारे । … जन्नत है, जन्नत है बम्बई ।
अमीरों का शहर, मुफ़लिसों की जन्नत । अरे वहां फुटपाथ वाला भी अपने हुनर और मेहनत के दम पर अपना मुकद्दर जगा लेता है । मौका मिले तो जाना जरूर बम्बई ।… बम्बई से जब रू-ब-रू हुए तो बम्बई का हू-ब-हू ऐसा ही नज़ारा पेश हुआ।
घर है परिवार है, भरा पूरा संसार है । माता पिता अब इतिहास हैं । उनकी दो संतानें और है, उनका अपना घर परिवार है । इनके साथ इनकी पत्नी पुष्पा जी, बेटा रवि और उनकी पत्नी सोना और दो पौत्र शौर्य और रुद्र का का रहवास हैं । आटे, दाल, चावल के भाव से कभी इनका वास्ता रहा नहीं । जीवन जैसा भी मिला खुशगवार हैं।
कुछ भी कह के उसे सत्य सिद्ध करने में जान लगा देना, इसका पुराना शगल है । यह सच और झूठ दोनों के तलबगार है, लेकिन आप चिंता न करें, यह अपने को सत्यवादी जताने के चक्कर में ‘ आपका सच और झूठ ‘ बाज़ार में नीलाम नहीं करते ।… यह अपना सच और अपना झूठ बखानते है, आपके सच – झूठ से इसका कोई लेना देना नहीं । इस किताब में आपका जिक्र है, आपके सच झूठ का नहीं ।…
जी हां हुजूर
मैं झूठ बोलता हूँ
मैं तरह तरह के
किसिम किसिम के
झूठ बोलता हूँ
यह झूठ, झूठों में
ईमान जगाता है
यह बुद्धिजीवी को
इंसान बनाता है
यह झूठ सच की
पोल खोलता है
यह अपने सच से
जहर नहीं घोलता है
जीवनी आप अपनी लिख रहे हो तो अपना सच झूठ बखान करो न, मोहल्ले वालों की खिड़की से क्यों झांक रहे हो ।… 2 पैसे का कलम 2 पैसे का कागज़ पा गए तो लेखक हो गए, सब की हजामत करते फिरोगे ।
अपना जीवन दर्शन बताते हुए… ये गीत गुगुनाते हैं –
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया
बरबादियों का शोग माना फिजूल था
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया
जो मिल गया उसी को मुक़दर समझ लिया,
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया
गम और ख़ुशी में फ़र्क ना महसुस हो जहाँ
मैं दिल हो उस मुक़ाम में लाता चला गया
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया..
ये जाना अजाना शख्स कितना भी बिराना हो पर लगता है, अपना तो घना याराना है ।… ‘ मेरे आसपास के लोग ‘ इसकी किताब है, इसी में हर सवाल का जवाब है। ।
* टिल्लन रिछारिया की क़िताब ‘ मेरे आसपास के लोग ‘ से सादर साभार !