हास्य अभिनेता महमूद जिन वजहों से शराब को हाथ नहीं लगाते थे, शराब से विकर्षण की ठीक वही वजहें मेरे पिता के लिए भी थीं। महमूद कहते थे, उनकी अगली कई पुस्तों के हिस्से की शराब उनके पिता पी गये। मेरे पिता के पिता ने भी शराब के लिए सारी जायदादें बेच डालीं। महमूद गुरु दत्त और अब्रार अल्वी की मंडली में शामिल होना चाहते थे, लेकिन बिना शराबनोशी के यह संभव नहीं था। एक दिन जब ज़बरदस्ती उनके मुंह में शराब उंड़ेली जा रही थी, महमूद ने दांत भींच लिये और यह किस्सा सुनाया। अब्रार ने वही किस्सा सत्या सरन को सुनाया और सत्या सरन ने गुरु दत्त और अब्रार अल्वी पर अपनी किताब में इसका बड़ा रोचक ज़िक्र किया है। ऐसे ढेर सारे किस्सों का ख़ूबसूरत कोलाज है, गुरु दत्त के साथ एक दशक: अब्रार अल्वी की यात्रा। यह 2008 में पहली बार अंग्रेज़ी में छपी, Ten Years with Guru Dutt: Abrar Alvi’s Journey… और राजपाल एंड संस से 2011 में इसका हिंदी संस्करण आया। हिंदी संस्करण के प्रीफेस (प्राक्कथन) में, जो दरअसल किताब के अंत में है और उसे उत्तर कथन कहना ज़्यादा सही होगा, सत्या सरन ने बहुत ख़ूबसूरत बात लिखी है।

“जब इस पुस्तक पर काम शुरू हुआ, तो मेरा मन मुझे मेरे कैशोर्य काल में ले गया। हठी किशोरी ने यह निर्णय ले लिया था कि हिंदी उसके बस की नहीं। तमाम हिंदी पुस्तकों को संदूक में बंद कर मैंने हमेशा के लिए ताक पर रख दिया था। ये सोचते हुए कि अंग्रेज़ी ही मेरे मन की भाषा थी और वही काफी थी मेरी साहित्यिक संतुष्टि के लिए। विगत डेढ़ वर्षों में अनुवादक को सहयात्री बना जब मेरा लेखक मन हिंदी की बगिया से गुज़रा, तो मैंने पहली बार इस भाषा की महिमा को पहचाना। विषय वही पर नये मुहावरे, कविता वही पर छंद नये। कितनी बार ऐसा लगा कि अनुवाद ने मूल लेखन से बाज़ी मार ली। इस सबके लिए अनुवादक (प्रवीण कुमार) के द्विभाषा ज्ञान को मेरा नमन।”

“मुझे शायद ऐसा अनुभव इसलिए भी हो रहा है क्योंकि अब्रार की कृतियां भारतीय रही हैं, उनका भाव और परिवेश भारतीय रहा है और बजाय इसके कि वह तीन तीन भाषाओं के ज्ञाता थे और उनका साहित्यिक मन इन तीनों भाषाओं से प्रेरित था, उनके शब्द पन्नों पर हिंदी में ही उतरते थे और वह सब कुछ जो उन्होंने लिखा, अंतत: भारत की बोली हिंदी में ही कालजयी हुआ।”

यह किताब कल रात पढ़ कर मैंने ख़त्म की और सचमुच गुरु दत्त के बारे में यह एक रोचक और प्रामाणिक किताब है। बहुत सालों तक अरुण खोपकर की किताब ‘गुरु दत्त: तीन अंकीय त्रासदी’ मेरे साथ टहलती रही, लेकिन उसे ख़रीदने के बीस साल बाद मैं उसे पढ़ पाया और समझ पाया। गुरु दत्त के ‘काग़ज़ के फूल’ की तरह, जो रीलीज़ के वक़्त नहीं चली, लेकिन बाद में सिनेमा के विद्यार्थियों के लिए एक ज़रूरी कृति की तरह हो गयी। विमल मित्र की किताब ‘बिछड़े सभी बारी बारी’ में साहब बीवी और ग़ुलाम के आसपास की कहानियां हैं, लेकिन सत्या सरन की किताब में गुरु दत्त के बनने, संवरने, शिखर पर चढ़ने और फिर पूरी तरह डूब जाने की कहानी है। दोस्ती, दांपत्य, प्रेम और रचनात्मक महत्वाकांक्षाओं के बीच उलझे हुए गुरु दत्त की एक उदास कहानी। इसे खोजिए, ख़रीदिए और पढ़ डालिए।

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