एक और संग्रामः अस्तित्व रक्षा व न्याय प्रतिष्ठा का : हेमभाई
# SurvivalofDefenseandJustice:
पहले से ही लाखों विदेशी शरणार्थियों और अवैध घुसपैठियों का बोझ ढो रहे असम में अब एक भी विदेशी को आत्मसात करने की गुंजाइश नहीं है। भाषाई हिसाब से भी असमिया लोग इस समय अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक होने की हालत में हैं। और अधिक संख्या में एक भाषा विशेष के विदेशियों को छल-बल से बसाने की चेष्टा से असम भी एक और त्रिपुरा बन जाएगा। इसकी वर्तमान जनसांख्यिकी विनष्ट हो जाएगी। रोजगार और काम धंधे की तलाश में यहां के लाखों बेरोजगारों को देश-दुनिया के दूसरे स्थानों में भटकना पड़ रहा है। ऊपर से भारत सरकार अभी तक यहां के युवाओं को अपने पैरों पर खड़े होने लायक शिक्षा उपलब्ध कराने में भी विफल रही है। ऐसी विषम परिस्थिति में सरकार भला इस तरह का विधेयक लाने और इसे कानून में बदलने की बात भी किस प्रकार से सोच सकती है।
बीते पांच सौ साल के इतिहास के पन्ने पलट कर देखेंगे तो पाएंगे कि असम के अंदर एक से बढ़कर एक गहन और गुरुतर समस्याएं आई हैं। यह सिलसिला अभी तक थमा नहीं है। हर समस्या को उसकी शुरुआत में देख कर लगता है मानो इससे बड़ी
समस्या पहले कभी आई ही नहीं। और यह कि जैसे इसका हल हो पाना केवल कठिन ही नहीं, अपितु असंभव है। किंतु असम के वीरों, महापुरुषों, संघर्षशील नेताओं, बुद्धिजीवियों, साहित्य-संस्कृति के उपासकों और खासकर आम जनता की मनस्विता और त्याग के बल पर असम फिर भी अपने स्वरूप में जीवंत रहा। नाना भांति की साजिशों को तार-तार करता हुआ वृहत्तर असम चिरंतन बना रहा। अचरज नहीं कि मलयाली मनोरमा ईयर बुक में विश्व की 200 जातियों में असम-असमिया को 45वें स्थान पर दर्शाया गया है। हमारी इस गौरवमयी पहचान के लिए हमें हमारे पूर्वजों का आभारी होना ही होगा।
स्वर्गदेउ चाउल्युंग च्यूकाफा के असमिया भाषा-संस्कृति को बचाने के निर्णय, महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव के मैथिली मिश्रित ब्रजबोली से असमिया भाषा में लिखने के निर्णय, आउलिया शाहमिलान अजान फकीर के असमिया में
हिंदू-मुस्लिम भ्रातृत्वभाव से भरे जिकिर लिखने के निर्णय, अमरीकी बैप्टिस्ट मिशनरियों के असमिया भाषा में ही अरुणोदई पत्रिका के माध्यम से पहली बार असमिया भाषा को मुद्रित रूप में सामने लाना और फिर लगभग सौ साल पहले पद्मनाथ गोहाईं बरुवा, लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा आदि अध्येताओं का मिलकर असम साहित्य सभा गठित करने का निर्णय या फिर ज्योतिप्रसाद अगरवाला के द्वारा असमिया में जयमती फिल्म बनाने के निर्णय आदि कई सारे तात्क्षणिक अभिनव कदमों ने असमिया के अस्तित्व, भाषा-संस्कृति के संरक्षण और संवर्द्धन में अहम् भूमिकाएं निभाईं थीं।
इन महानुभावों ने ये सब निर्णय यूं ही ले लिए थे क्या? हरगिज नहीं। असमिया लोगों और असमिया भाषा-संस्कृति में ऐसी योग्यता, ऐसी संभावना और ऐसी ओजस्विता थी कि वे सब महानुभाव उस तरह के निर्णय ले सकें। इन सबके बावजूद असम के ऊपर नाना प्रकार के संकट मंडराते रहे। असम टुकड़े-टुकड़े होता रहा। इतने सबके बावजूद असम खत्म नहीं हुआ। असम जिंदा रहा। बहुत दूर तक नहीं जाएं, नजदीक के इतिहास को देखें तो पाते हैं कि आजादी की सांध्यवेला में असम को सी-ग्रुप में डालकर पूर्व पाकिस्तान में शामिल करने की साजिश के अलावा वहां से बड़े पैमाने पर पूर्व-बंगीय समाज का यहां आव्रजन कराने और बांग्ला भाषा को यहां थोप कर असमिया भाषा को हटाने जैसी अनेक साजिशें रचीं गईं थीं।
इन तमाम साजिशों के विरोध में असमिया लोगों को एक नहीं दो बड़े आंदोलन करने पड़े। इन आंदोलनों ने देश-दुनिया को हिला दिया। पहला आंदोलन था भाषा-आंदोलन, जो 1959-60 के दौरान चला और दूसरा आंदोलन ऐतिहासिक असम
आंदोलन के नाम से मशहूर हुआ। वर्ष 1979 से वर्ष 1985 के दौरान विदेशी वहिष्कार के रूप में चले इस आंदोलन ने असम को विश्व पटल पर विशेष स्थान दिलाया। साथ ही इन सब के कारण असम और भारत को होने वाले लाभ व नुकसान को
भी दुनिया ने देख लिया।
इन समस्त समस्याओं से परे एक और गहन समस्या चुपके-चुपके दबे पांव भारत सरकार के एक विवादित विधेयक के कारण असम में घर कर रही है। अगर यह विधेयक संसद में पारित होकर कानून का स्वरूप धारण करता है तो न केवल असम के ऊपर
कहर ढाने का कारण बनेगा, बल्कि समूचे भारत को हिला देगा। कहना नहीं चाहिए, लेकिन उस हालत में यह विधेयक असम के ताबूत पर आखिरी कील साबित हो सकता है।
नागरिकता कानून संशोधन विधेयक-2016 के नाम से कुचर्चित यह विधेयक सरसरी निगाह से देखने पर अत्यंत मोहक लगता है। करुणा और मानवता की उदात्त भावना से परिपूर्ण लगता है। जताया जा रहा है कि सांसदों को बिना समय गंवाए आंख मूंदकर इस विधेयक पर हां कर देनी चाहिए, तभी असमिया जाति-माटी-घर-संसार और कृष्टि-संस्कृति सुरक्षित रह पाएगी।
वास्तव में इस मारक विधेयक में आखिरकार है क्या, जो हमें इतना चिंतित कर रहा है? सूक्ष्म तरीके से देखें तो पाते हैं कि विधेयक में यह कहा गया है- “भारत के बाहर अन्य किसी भी देश में अगर कोई हिंदू, ईसाई, बौद्ध, जैन या दूसरे किसी भाषाई अल्पसंख्यक पर वहां धार्मिक संख्या बल पर बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अत्याचार होता है तो ये लोग भारत आ सकते हैं। अगर आ गए तो भारत इन्हें तुरंत अपनाएगा, नागरिकता प्रदान करेगा और इनके जान-माल की रक्षा करते हुए इन नए मेहमानों को विकास की सभी सुविधाएं मुहैया कराएगा’। प्रश्न है कि इतना सुंदर, करुणा पूर्ण, मानवतावादी एक विधेयक मारक या खतरनाक कैसे हो सकता है? इस विधेयक को कानून में बदलने से किसका और क्या नुकसान होगा?
तो इसका उत्तर है- “पूतना गोकुल में गई थी एक अतिसुंदर नारी के रूप में। उसके उस विश्वमोहिनी स्वरूप को देख गोकुल के लोग, खासकर माताएं इतनी मोहित हो गईं कि उन्हें कोई सुध नहीं रही। पूतना एक तरफ सभी बालकों को
स्तनपान कराकर मारती गई तो भी किसी को इसका भान तक नहीं हुआ। उस समय पूतना ऊपर-ऊपर से विश्व-मोहिनी थी, लेकिन अंदर से अत्यंत क्रूर, खतरनाक और हत्यारी थी। उसका यही अंदर का रूप वास्तविक था, ऊपर का सौंदर्य दिखावा-मात्र। भुलावे के लिए। प्रस्तावित विधेयक भी आधुनिक पूतना है। निहित स्वार्थ वाले कुछ तर्कों से साधारण लोग मोहित हो सकते हैं, लेकिन हकीकत में यह विधेयक मंगलमय कतई नहीं है। खतरनाक और घातक है। मानवता विरोधी, भारत के लिए एक नहीं उठा सकने वाला बोझा, असम के लिए मृत्युदूत और वैयक्तिक जीवन के लिए एक अलंघ्य दीवार है’।
सवाल फिर उठता है, किस प्रकार से यह विधेयक मानवतावाद विरोधी है? मानवतावाद ही मानव-जाति का अचल धर्म है। यदि कोई धर्म व्यक्तिऔर समाज को मानवता की ओर प्रेरित करता है तब तो वह धर्म मंगलमय है और इसलिए ग्रहण योग्य भी है। लेकिन अगर यही धर्म मानवतावाद को छोड़क एक संकीर्ण संप्रदायवाद में लोगों को बांध दे तो वह धर्म मृत्यु का घंटा ही है।
वैसे देखा जाए तो सभी धर्म मानवतावाद की ही बात करते हैं। हिंसा, नफरत और संकीर्णता छोड़कर परमसत्य की ओर ले जाते हैं। सच्चे विज्ञान और सच्चे धर्म में कोई भेद नहीं है। हिंदू धर्म में तो है ही नहीं। ऋग्वेद से लेकर आज के महापुरुषों तक सभी मानवतावाद, विश्व-ब्रह्मांड व्यापकता, परम सत्य और अनंत की घोषणा करते आए हैं। “वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात करते हैं। “यत्र विश्व भवति एक नीडम्’ का गुणगान करते हैं। लेकिन यह प्रस्तावित विधेयक व्यापक भावना नहीं अपितु हिंदू बांग्लादेशी की प्रतिध्वनि सुनाता है। विज्ञान की मदद लेकर मनुष्य अन्य ग्रहों में जा वहां भी एक-एक वैश्विक ग्राम बनाने की तैयारी कर रहा है। वहां मानव जाति कौन सा धर्म अपनाएगी। एक ही धर्म रहेगा या सभी धर्मों का साथ होगा। सभी धर्मों को अपना धर्म बनाकर सभी का सार ग्रहण करना होगा। यह करने के लिए क्या हमें व्यापक, उदारमना और सहनशील नहीं बनना होगा? बनना पड़ेगा और उसका प्रशिक्षण अभी से शुरू करना होगा।
यह है तो फिर एक ही धर्म के लोगों को इस विधेयक के माध्यम से बांग्लादेश छोड़कर भारत में आने के लिए क्यों उकसाया जा रहा है। ऐसा करने का परिणाम क्या होगा। परिणाम यह होगा कि बांग्लादेश के अतिवादी लोग वहां केअल्पसंख्यक हिंदुओं पर कहर बरसाएंगे, अत्याचार करेंगे ताकि ये लोग भागकर भारत चले जाएं भारत उन्हें अपना ही लेगा। फिर दुनिया के तमाम अतिवादी यही करेंगे। वहां से हिंदुओं को भगाएंगे। उधर सूरीनाम, मलेशिया, माले, द. अफ्रीका, ब्रिटेन और अमरीका आदि देशों में रहने वाले हिंदुओं का यही हाल होगा। उन लोगों को भारत जाने को बाध्य किया जाएगा। तब फिर भारत किस-किस को रख पाएगा। दुनिया भर से प्रताड़ित हिंदुओं का भारत में आने का तांता लग जाएगा। वैश्विक विप्लव की स्थिति पैदा हो जाएगी। यह सिलसिला एक बार शुरू हुआ तो फिर इसका अंत नहीं होगा। अंततः लोकतंत्र ही खतरे में आ जाएगा। भारत के लिए बोझ बन जाएगा। विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान दो देश हो गए थे। विभाजन की वह घड़ी अत्यंत वेदना भरी थी। सांप्रदायिक हिंसा में लाखों निरपराधों की जान गई थी। तब तमाम हिंदू भारत में आ गए थे। लेकिन सभी मुसलमान पाकिस्तान नहीं चले गए थे। भारत को पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्व पाकिस्तान से आने वाले भाई-बहनों का एक बोझ स्वीकार करना पड़ा था। फिर वर्ष 1959 में चीन के तिब्बत को कब्जाने के समय भारत आ गए लाखों बौद्धों को हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में बसाया गया, जो फिर वापस लौट कर नहीं गए। यहां के स्थाई निवासी हो गए। वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय लाखों लोग शरणार्थियों के रूप में भारत (असम) में समा गए। लेकिन बाग्ंलादेश बनने के बाद उनमें से अधिकांश लोग वहां लौटकर नहीं गए। असम में ही रह गए।
चीन के बाद दुनिया में भारत दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। गरीबी के कारण आत्महत्याएं करने को मजबूर लोगों के इस देश में 8-10 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। अब यह देश और अधिक विदेशियों का बोझ उठाने में सक्षम नहीं है। धार्मिक आधार पर विदेशियों को बसाने की कोशिश एक प्रकार से आत्महत्या होगी।
असम के परिप्रेक्ष्य में देखें: पहले से ही लाखों विदेशी शरणार्थियों और अवैध घुसपैठियों का बोझ ढो रहे असम में अब एक भी विदेशी को आत्मसात करने की गुंजाइश नहीं है। भाषाई हिसाब से भी असमिया लोग इस समय अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक होने की हालत में हैं। औऱ अधिक संख्या में एक भाषा विशेष के विदेशियों को छल-बल से बसाने की चेष्टा से असम भी एक और त्रिपुरा बन जाएगा। इसकी वर्तमान जनसांख्यिकी विनष्ट हो जाएगी। रोजगार और काम धंधे की तलाश में यहां के लाखों बेरोजगारों को देश-दुनिया के दूसरे स्थानों में भटकना पड़ रहा है। ऊपर से भारत सरकार अभी तक यहां के युवाओं को अपने पैरों पर खड़े होने लायक शिक्षा उपलब्ध कराने में भी विफल रही है। ऐसी विषम परिस्थिति में सरकार भला इस तरह का विधेयक लाने और इसे कानून में बदलने की बात भी किस प्रकार से सोच सकती है।
सरकार के लिए जरूरी है कि वह असम के जीव-जंतुओं, खेती-किसानी के हाड़-मांस के जीते-जागते नागरिकों के हित के साथ यहां की बाढ़ और भूमि-कटाव जैसी भीषण समस्या के साथ अवैध विदेशी घुसपैठ सरीखी बेहद जटिल समस्याओं का निराकरण करे। विदेशियों के सुख-दुख की बात अंतर्राष्ट्रीय मंच पर तय करने दिया जाए। इन सबकी फिक्र संयुक्त राष्ट्र संघ करने के लिए है न। चतुर राजनीतिज्ञों के तर्कः चालाक राजनीतिक लोग चतुराई भरे तर्क देते हैं। दलील देते हैं कि इस विधेयक के जरिए लाए जाने वाले विदेशियों को असम की जगह देश के अन्य राज्यों में बसाया जाएगा। सवाल उठता है कि अन्य
राज्यों में क्यों बसाया जाएगा। क्या बाकी राज्यों और वहां के लोगों की वैसी ही कठिन हालत नहीं है। क्या उनकी अपनी समस्याएं नहीं हैं। फिर अन्य राज्यों में बसने के बाद क्या ये सब लोग अंतत-असम में नहीं आ जाएंगे। भारतीय नागरिक बन जाने के बाद कौन रोकेगा, उन्हें देश में कहीं भी जाने
से।
सवाल उठता है कि वैसी परिस्थिति आने पर असम को क्या एक बार और तीसरा बड़ा आंदोलन करना होगा। वह आंदोलन होगा, असम में भी अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम की तरह इनरलाइन परमिट की व्यवस्था की मांग का। इन तमाम परिस्थितियों में हम प्रस्तावित नागरिकता कानून संशोधन विधेयक-2016 का सबसे विरोध करने का आह्वान करते हैं।
-शांति साधना आश्रम, गुवाहाटी-29
दूरभाष- 94350-14428