फ़िल्म बनानी थी और बन नहीं रही थी / अविनाश दास

फ़िल्म बनानी थी और बन नहीं रही थी। छह-सात सालों तक एक कहानी को लेकर घूमना और फिर उसका फ़िल्म में रूपांतरित हो जाना एक सपने का पूरा हो जाना ही होता है। पिछले साल 24 मार्च वह तारीख़ थी, जब मेरी पहली फ़िल्म रीलीज़ हुई, अनारकली ऑफ़ आरा। मुझे याद है, पिछली जनवरी में जब रीलीज़ की तारीख़ का एलान हुआ, मुझे यक़ीन ही नहीं हो रहा था। फ़िल्म बन जाने के बाद महीनों मैंने इस पल का इंतज़ार किया था और बीच में ऐसे हालात भी आये कि फ़िल्म शायद रीलीज़ न हो। जनवरी से मार्च तक मुझे ठीक से रात में नींद नहीं आयी होगी, क्योंकि मैं सुबहें गिन रहा था। फिर एक धुकधुकी कि पता नहीं दर्शकों और समीक्षकों की क्या प्रतिक्रिया होगी। और जब 24 मार्च आ गया – लोगों ने फ़िल्म देख ली, समीक्षकों ने अपने विचार ज़ाहिर कर दिये – तब भी यक़ीन करने जैसा कुछ नहीं था। सब कुछ अप्रत्याशित था। सबने दिल खोल कर प्रशंसा की थी और मुझे लगा कि इतना अनोखा तो कुछ था नहीं – फिर लोग अनारकली ऑफ आरा देखने के बाद इतने ख़ुश और भरे-पूरे क्यों नज़र आ रहे हैं। दरअसल फ़िल्म बनने की प्रक्रिया में आप इतनी बार टूटते हैं कि आपको अपनी रचना पर संदेह होने लगता है। अनारकली ऑफ आरा की जितनी प्रशंसा होती गयी, मैं संकोच में कछुए की तरह सिमटता चला गया। मेरी फ़िल्म में उन तमाम लोगों के योगदान को लेकर मेरी कृतज्ञता का प्रतिशत बढ़ गया, जिनसे फ़िल्म निर्माण की प्रक्रिया में पहली बार मैं मिला था। चाहे वो हमारे म्यूज़िक डायरेक्टर रोहित शर्मा [Rohit Sharma] हों, डायरेक्टर ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़ी अरविंद कन्नाबिरन [Arvind Kannabiran] हों या एडिटर जबीन मर्चेंट [Jabeen Merchant] हों। फ़िल्म की सफलता के बाद मेरी यात्राएं शुरू हुईं और मेरा जीवन लगभग बदल गया। पलक झपकते साल बीत गया और तमाम ईयर एंडर में फ़िल्म को जगह दी गयी। बड़े समीक्षकों ने अपनी टॉप टेन फ़िल्मों की लिस्ट में अनारकली ऑफ़ आरा को जगह दी।

मेरे लिए अब तक अनारकली ऑफ़ आरा की ख़ुमारी से उबर पाना संभव नहीं हो पाया है, लेकिन सच यही है कि पुराना भूल कर आगे बढ़ जाना ही होशियारी होती है। अब तक मुझे मेरे इनबॉक्स में अनारकली ऑफ़ आरा के बारे में अच्छी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, पर पिछले कुछ महीनों से मैंने उन्हें महत्व देना छोड़ दिया है। मुझे लगने लगा है कि अनारकली ऑफ़ आरा को भूलने और इसके बनने से पहले की सच्चाई और ज़िद को वापस हासिल करने के बाद ही मैं आसानी से सफ़र में आगे क़दम बढ़ा सकूंगा। क्योंकि समय वह पहिया है, जो आगे बढ़ जाता है तो फिर लौट कर नहीं आता। हम सब देख रहे हैं कि एक साल बहुत जल्दी बीत गया। हरिवंश राय बच्चन जी की कविता भी है, जो बीत गयी सो बात गयी! तो मेरे लिए अनारकली ऑफ़ आरा अब एक सपने की तरह है और सपने वाली रात गुज़र चुकी है। सुबह हो गयी है और मुझे चढ़ते हुए सूरज पर नज़र रखना है।

आज सुबह से आ रहे आप सबके शुभकामना संदेशों का मैं हृदय से आभारी हूं।

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