हिंदी में आलोचना / रविन्द्र त्रिपाठी

हिंदी में आलोचना- विधा बेहद कमजोर हैं- ये या इससे मिलती जुलती बात अक्सर कही और लिखी जाती है। ये वास्तविकता भी है। कम से कम मुझे ऐसा लगता है। ऐसा नहीं है कि हिंदी आलोचना में बिल्कुल नहीं है। लेकिन अच्छी हिंदी आलोचना सबसे अधिक मध्यकालीन हिंदी कविता के बारे में है और उसके बाद आधुनिक हिंदी कविता के बारे में। सैद्धांतिक हिंदी आलोचना तो नहीं के बराबर है, रामचंद्र शुक्ल के बाद। नाटक विधा के अकादमिक आलोचक नहीं के बराबर हैं।
लेकिन आजकल सबसे दयनीय हालत हिंदी की उपन्यास आलोचना की है। हिंदी में जितने भी उपन्यास समादृत हुए उनमें से ज्यादातर के पीछे समाज और पाठक की आलोचना बुद्धि है आलोचको की नहीं। हिंदी कविता की आलोचना ने कुछ क्लिशे विकसित किए हैं और हर कवि पर उसे चस्पा कर दिया जाता है। जैसै की फलां फलां में मानवीयता है, विवेक है, करूणा है। आदि आदि। हर कवि के बारे में इसी तरह की स्थापनाएंं सुनने या पढने को मिलती हैं। हालांकि अकविता जैसे आंदोलन के लेकर हिंदी आलोचना पहले भी और आज भी असंवेदनशील रही है। बहरहाल, वह एक अलग प्रसंग है।
लेकिन हिंदी के उपन्यासों या उपन्यासकारों के लेकर क्लिशे भी विकसित नहीं हुए। प्रेमचंद और रेणु अपवाद हैं। हालांकि रेणु को भी शूरू में हिंदी आलोचना ने खारिज कर दिया था। वे भी पाठकों के कारण हिंदी में जगह बना गए। बाद में निर्मल वर्मा ने उन पर बहुत अच्छा आलोचनात्मक लेख लिखा।
पर उसके बाद की हिंदी उपन्यास आलोचना कहां है?

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