विपक्षी एकता के मंत्र राहुल गांधी ने सिद्ध नहीं किए।
~सत्य नारायण मिश्र .
सोनिया गांधी अब काले-सफेद में कांग्रेस की अध्यक्ष नहीं हैं। लेकिन जैसा कि बहुतों को लगता है, राहुल गांधी से सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस के अंग-उपांग संभल नहीं पा रहे। ज्यादातर एआईसीसी नेता भी गुजरे जमाने के साहबी भाव से भरे हैं। यह कतई साफ है कि भाजपा के प्रचार तंत्र और मेधा बल के आगे फिलहात कांग्रेस के पास तंगहाली नजर आ रही है। यह बात शायद ऊपर के नेता भी समझ रहे हों या नहीं भी समझ पा रहे हों। लेकिन बेटे को गद्दी सौंपने के चंद माह के भीतर ही बुजुर्ग हो चुकीं सोनिया गांधी ने आज डिनर पार्टी की तो स्वाभाविक तौर पर राजनीति के महारथियों को इसमें राजनीति दिखाई दे रही है।
यह समय न तो किसी राष्ट्रीय उत्सव का है और ना ही शासक भाजपा पर कांग्रेस या विपक्ष ने कोई बड़ी जीत हासिल की है। बल्कि सच ये है कि गुजरात से लेकर धुर पूर्वोत्तरीय तीन राज्यों में करारी मात ही मिली है। खबरें ये भी मिल रही हैं कि इस साल के अंत तक कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव के साथ लोकसभा के आम चुनाव भी करा देने की प्रबल संभावना
है। संसद में बजट सत्र के दौरान अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इस बात का संकेत दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी विधानसभाओं के साथ आम चुनाव का समर्थन किया है। जबकि कांग्रेस और अन्य प्रमुख विपक्षी पार्टियां फिलहाल इसके पक्ष में नहीं दिखाई दे रहीं। कांग्रेस चाहती है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले सारी भाजपा विरोधी
पार्टियां उसकी अगुवाई में एक मंच पर आ जाएं। तभी देश भर में जंगल की आग की तरह की फैल रही भाजपा की लहर को रोका जा सकेगा। कांग्रेस का कोई बड़ा नेता खुलकर यह बात भले नहीं माने। लेकिन सोनिया गांधी की डिनर राजनीति का
फलसफा बहुत कुछ संकेत दे रहा है। इतिहास गवाह है, कांग्रेस गठबंधन की जरूरत तभी महसूस करती रही है, जब उसकी हालत बेहद पतली हुई है। जब भी उसकीहालत मजबूत हुई है, उसने बाकी सबको किनारे कर दिया।
गठबंधन की राजनीति दरअसल कांग्रेस की मजबूरी पहले भी रही है, आज भी साफ तौर पर दिखाई दे रही है। क्योंकि उसमें राष्ट्रीय स्तर पर उसे जीवंत बनाने की क्षमता वाला कोई सर्वशक्तिमान एक नेता है ही नहीं। कांग्रेस की गठबंधन की कोशिश इस साल जनवरी के अंतिम दौर में तब तेज हो गई थी, जब शरद पवार के घर पर विपक्षी मिले थे। कांग्रेस की तरफ से गठबंधन की कमान सोनिया गांधी के हाथों में देने का सुझाव दिया गया था। फिर सोनिया गांधी ने 17 विपक्षी पार्टियों की बैठक बुलाई थी। असम में उसीके आधार पर एआईयूडीएफ प्रमुख मौलाना बदरुद्दीन अजमल ने भाजपा विरोधी महागठबंधन का दावा किया था।
हालांकि यहां पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रिपुन बोरा सहित तमाम कांग्रेसियों ने अजमल से दोस्ती का पुरजोर विरोध किया था। पर यह भी सही है कि राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने के बावजूद खुद एआईसीसी में ही कई बड़े उन्हें सोनिया गांधी की तरह यूपीए या वैसे किसी महागठबंधन का स्वाभाविक नेता नहीं मानते। माना जा रहा है कि विपक्षी एकता के मंत्र राहुल गांधी ने सिद्ध नहीं किए।