यह जुमलेबाजी का घिनौना दौर है  

बाइलाइन सुधेन्दु पटेल /

खासकर सिर्फ सुधार के लिए चिंता दर्शाने वाली गोष्ठियों से चिढ़ होती रही है | इनका आयोजन करने वाले समूहों (जिनकी संख्या उँगलियों के पोरों पर ही ख़त्म होनेवाली)और उनसे सहमति रखने वालों की मंशा पर शक न करते हुए निरर्थक जुटान ही लगती है | बातों की जुगाली करते हुए यही महसूस होता है कि कौन किसको कैसी सफाई से झेल रहा है | यह जानते हुए भी कि यथास्थिति में किंचित भी फर्क नहीं पड़ने वाला है , क्यों नाहक बतकही में क्रांति करने का भ्रम उछाल रहे हैं | क्या ऐसा करने वाले भी एक प्रकार का धंधा ही तो नहीं कर रहे हैं | कौन किसको मुगालते में रख रहा है | मेरी तकलीफ है कि में सोच सोच कर ही अपनी रात की नींद हराम कर लेता हूँ| अंततः मैं अपने नाकारापन को कोसते हुए ऐसे आयोजनों से कतराने लगा हूँ | जबकि कभी भाई रमेश थानवी के अगुआई में प्रौढ़ साक्षरता के बहाने कई ऐसे बुनियादी बदलाव के प्रयास समिति के आंगन में उत्साह के साथ किये थे, जो सिर्फ रोजी-रोटी के लिए ही नहीं हुआ करते थे | यह मानते हुए कि कोई भी सद्इच्छा से किया गया मानवीय प्रयास सर्वथा जाया नहीं हुआ करता है | लेकिन क्या सच में कुछ बदला भी है ?

 आज यथास्थिति और भी ज्यादा कुटिलता के साथ बरकरार है | आवारा पूँजी और बाजारवाद की आंधी ने पाखंड और तिकड़म के नए-नए उपाए सिखला दिए हैं | संचार क्रांति ने तो मोबाइल जैसे संसाधन के साथ ‘साक्षरता’ की बहस को तो मानो ख़त्म-सा ही कर दिया है | यह जुमलेबाजी का घिनौना दौर है | 

अभी पिछले दिनों मेरे अखबार में काम करने वाले एक कार्यकर्ता से मिली जानकारी ने तो मुझे भीतर तक न केवल झंकझोर कर रख दिया अपितु ध्वस्त ही कर दिया | उन दिनों ‘समिति’ से जुड़ा ही था कि जयपुर बाढ़ की चपेट में सहसा घिर गया था जिसका असर आसपास के काफी बड़े-छोटे गाँव तक में हुआ था | बड़ी संख्या में अचानक आई आपदा से लोगों की तबाही के साथ मन तक टूटे थे | बहुत सारी संस्थाओं की ही तरह समिति भी तत्काल राहत के काम में जुट गयी थी | औरों की तरह हमलोग सिर्फ ‘दानदाता’ की मानसिकता वाले नहीं थे | उस परिस्थिति में उपजी सामाजिक विषमता की पड़ताल और उसके निराकरण के दीर्घकालिक उपायों की बात भी हमलोगों के दिमाग को मथ रही थी |

हमलोगों ने कई जुगत के बीच नुक्कड़ नाटकों के माध्यम का भी सहारा लिया था | गाँव वालों की भागीदारी से गाँव के कई मुद्दे उभर कर आये थे | उस विपत्ति में भी सरपंच भ्रष्टाचार करने से बाज नहीं आ रहा था, जिसे चौड़े में लाने का काम हमने नुक्कड़ नाटक के जरिये किया था | प्रयोग अंत्यंत सफल रहा था , परिणामतः चुना हुआ सरपंच सामाजिक रूप से प्रताड़ित हुआ था और दंड का भागी भी | राजस्थान की राजधानी जयपुर से महज 30 किलोमीटर दूर बसे उस गाँव में जहाँ आज तथाकथित विकास की लगभग सब सुविधाओं के बावजूद क्या सचमुच सबकुछ बदला है | मुझे यह जानकर हैरत हुई की आज भी वहाँ जातियों के हिसाब से शमशान है ,कुएं भी (जो अब काम में नहीं आते और कचरागाह बन चुके हैं) स्थित है | गाँव के पढ़े लिखे कथित नीची जाती के सदस्यों के बाल गाँव का नाई आज भी नहीं काटता है, उन्हें सांगानेर ही जाना पड़ता है | जाहिर है मंदिर में भी उनका प्रवेश निषिद्ध है | 

 

उस दौरान ‘बाबाओं’ के अंधविश्वासों से भरे पाखंड और कुटिल करतूतों को उजागर करती मेरी एक कितबिया रमेश भाई ने प्रयोग के तौर पर छापी थी “दीपक तले अँधेरा” | जो प्रति मुझे अभी मिली उसके अनुसार नवम्बर 1996 , जून 1999 और फरवरी 2001 तक तीन संस्करण निकल चुके थे , आगे भी जरुर निकली ही होगी | क्या कुछ बदला या छूछा भ्रम बना रहा , क्या कहूँ गुरु !

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