महाराष्‍ट्र विधानसभा :शिवसेना किंगमेकर की भूमिका में

महाराष्‍ट्र में विधानसभा के चुनाव का पिटारा खुल चुका है और यहां नयी सरकार बनाने को लेकर जुगत तेज हो गयी है. भाजपा-शिवसेना गंठबंधन के सरकार बनाने की  उम्मीद तो नजर आ रही है लेकिन मीडिया में चल रही खबरों की मानें तो पेंच कहीं सीएम पद को लेकर फंस नहीं जाए. कारण साफ है , भाजपा को चुनाव में बहुमत से कम सीटें प्राप्त हुई हैं, इसलिए शिवसेना किंगमेकर की भूमिका में आ चुकी है.

  • पी के तिवारी


अलेक्ज़ैंडर कोतोव की किताब THINK LIKE A GRANDMASTER शतरंज के विद्यार्थियों के लिए एक अनूठी किताब है जो शुरूआती चालों (OPENINGS) की थ्योरी (जिसकी जानकारी ग्रैंडमास्टर की तरह खेलने के लिए आवश्यक है) न सिखा कर मिडिल गेम की विभिन्न स्थितियों के विश्लेषण और किसी परिस्थिति में सर्वश्रेष्ठ चाल ढूँढ निकालने के तरीकों पर बल देती है। शुरुआती पृष्ठों में ही पाठक का सामना एक ऐसी परिस्थिति से होता है जिसमें एक ओर तो उसकी मात हो रही है, और दूसरी ओर उसका वज़ीर पिट रहा है; ऐसी स्थिति में लेखक पाठक को सर्वश्रेष्ठ चाल ढूँढने के लिए कहता है। अब साधारण खिलाड़ी तो ऐसी स्थिति में खेल ही छोड़ देगा, पर ग्रैंडमास्टर नहीं। लेखक कहता है कि मात तो बचानी ही है, और अगर मात बचाने के लिए वज़ीर की क़ुरबानी देनी पड़ती है, तो दो, और वज़ीर के आगे देखो। और वास्तव में करीब १०-१५ मिनट मगजमारी करने के बाद दिखाई पड़ता है कि वज़ीर पिट जाने के बाद पाँचवीं चाल में खिलाड़ी दूसरे पक्ष को मात देने की स्थिति में आ जाता है।

महाराष्ट्र में भाजपा कुछ ऐसी ही परिस्थिति में फँसी हुई है। उसकी तथाकथित सहयोगी पार्टी शिवसेना भाजपा के अपने दम पर बहुमत के निकट न पहुँच पाने की उसकी स्थिति का पूरा फ़ायदा उठाकर मुख्यमंत्री-पद और महत्त्वपूर्ण विभाग हथिया लेना चाहती है। उद्धव ठाकरे के तेवरों से तो ऐसा नहीं लगता कि वह भाजपा के नेतृत्व में और उसकी शर्तों पर सरकार में शामिल होने पर विचार भी करेंगे। शिवसेना ऐसे किसी मौके की तलाश में पिछले पाँच सालों से थी, और इस बीच उसे कई बार अपमान के घूँट पीने पड़े; अब वह सारा हिसाब एक बार में निकाल लेना चाहती है। एक तरह से देखा जाय तो भाजपा और शिवसेना दोनों गेम थ्योरी के प्रसिद्ध खेल प्रिज़नर्स’ डिलेमा की स्थिति में फँसे हुए हैं जहाँ दोनों के पास दो-दो विकल्प हैं: या तो अपने खूँटे पर अड़े रहें, या दूसरे की माँगों के आगे समर्पण कर दें, पर यह निर्णय इतना आसान नहीं है, और इसलिए शुरू में शतरंज की बात की गयी: शतरंज के खेल में लिए जाने वाले फ़ैसले गेम थ्योरी के आधार पर नहीं लिये जा सकते।पहले शिवसेना के दृष्टिकोण से परिस्थिति को देखते हैं और उसके सम्भावित निर्णय पर विचार करते हैं क्योंकि शिवसेना एक क्षेत्रीय दल है, और उसके निर्णय का प्रभाव केवल एक राज्य तक ही सीमित रहेगा, उसके दृष्टिकोण को समझना और विकल्पों को तौलना अपेक्षाकृत आसान है।जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, शिवसेना बहुत दिनों से भाजपा को सबक सिखाने का मौका ढूँढ रही थी, और पिछले एक हफ़्ते में भाजपा के ख़िलाफ़ जो ज़हर उसके अन्दर भरा हुआ था, उसके अध्यक्ष और अन्य नेताओं ने वह सारा ज़हर सार्वजानिक रूप से उगल दिया है। २४ अक्टूबर को परिणाम घोषित होने के बाद शिवसेना ने जो तेवर दिखाये हैं, उसके बाद अगर वह समर्पण कर देते हैं, तो बाज़ार में उनकी साख बिल्कुल ही समाप्त हो जाएगी। उसके अपने समर्थकों का मनोबल बुरी तरह टूट जाएगा। भाजपा को वह इतना संकेत तो दे ही चुके हैं कि वह एक विश्वसनीय सहयोगी नहीं हैं, और भविष्य में भाजपा उनके ऊपर कभी भरोसा न करे। अब अगर किन्हीं कारणों से वह भाजपा के समक्ष समर्पण कर भी देते हैं अर्थात मुख्यमन्त्री के पद और मन्त्रिमण्डल में बराबर की भागीदारी के अपने दावे को छोड़ भी देते हैं, तब भी भाजपा उन पर भरोसा नहीं करने वाली है, और मौका मिलते ही उनके पर कतरने में चूकने वाली नहीं है, अतः समर्पण का फ़ैसला तो शिवसेना के लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों दृष्टिकोणों से हानिकारक है।अब अगर शिवसेना भाजपा की शर्तों पर सरकार में शामिल नहीं होती है, तो उसके सामने एक ही विकल्प बचता है, और वह है राकांपा और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाना। राकांपा और कांग्रेस को भी यह विकल्प जँचेगा।

कांग्रेस पाँच सालों से केन्द्र की सत्ता से बाहर है, और धीरे-धीरे वह पूर्ण असंगति की ओर बढ़ रही है। ऐसे में देश की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने के लिए महाराष्ट्र जैसे बड़े और औद्योगिक रूप से विकसित राज्य में सत्ता में भागीदारी का अवसर छोड़ना उसके लिए आत्मघाती ही होगा, और यही बात राकांपा के लिए भी सही है। जिस तरह से भाजपा महाराष्ट्र में पैर फैला रही है, वह राकांपा जैसे क्षेत्रीय दल के लिए एक खतरे की घण्टी है, और अगर इस बार सत्ता में आने या बाहर से शिवसेना को समर्थन देकर मुफ़्त में सत्ता का लाभ उठाने का यह अवसर अगर वह छोड़ देती है, तो उसके लिए भी अपना अस्तित्व बचाना कठिन हो जाएगा। शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस गठबन्धन दीर्घकालिक सन्दर्भों में राकांपा और कांग्रेस के लिए तो लाभदायक रहेगा, पर क्या शिवसेना के लिए भी यह उतना ही लाभदायक होगा? शायद नहीं।एक तो उसे अपना कठोर हिन्दुत्ववादी रवैया छोड़ना होगा: राम-मन्दिर के मुद्दे पर वह भाजपा के ऊपर दबाव नहीं बना सकेगी- इतनी कीमत तो अपना मुख्यमन्त्री बनाने के लिए चुकानी ही होगी। इसके अतिरिक्त भी राकांपा और कांग्रेस समय-समय पर अपने समर्थन की कीमत शिवसेना से वसूलेंगे, जिससे शिवसेना की दबंग वाली छवि प्रभावित होगी। स्पष्ट है कि यह गठबन्धन पाँच सालों तक नहीं चल सकेगा। मेरा अनुमान है कि एक साल के आस-पास तीनों दल एक-दूसरे को ढोते-ढोते थक जाएंगे। इस दौरान भाजपा लगातार शिवसेना पर हमलावर रहेगी: उसे भी अपनी भड़ास निकालने का पूरा मौका मिलेगा। शिवसेना सत्ता की मजबूरी में सबकुछ झेलेगी, और लगातार अपना नैतिक आधार खोती जाएगी, और इससे पहले कि यह आधार पूरी तरह से लुप्त हो जाय, वह सत्ता से बाहर आ जाएगी।

सवाल है: क्या एक साल के मुख्यमन्त्रित्व के लिए जनता में अपनी विश्वसनीयता घटने का खतरा शिवसेना उठाना पसन्द करेगी? शिवसेना पहले यह आकलन करना चाहेगी कि भाजपा बदली हुई परिस्थितियों का कितना फ़ायदा उठा सकेगी। भाजपा अगले एक साल में या अगले पाँच सालों में भी अकेले अपने दम पर महाराष्ट्र विधानसभा में बहुमत लेन योग्य हो जाएगी- इसकी कोई सम्भावना मैं तो नहीं देखता, और शायद शिवसेना भी न देखे। भाजपा को भविष्य में फिर से शिवसेना की ज़रुरत पड़ने जा रही है। यह देखते हुए कि राजनीति में स्थायी मित्र या स्थायी शत्रु नहीं होते, शिवसेना को अगले चुनाव से पहले भाजपा के साथ फिर से गठबन्धन बनाने में कोई सैद्धान्तिक अड़चन नहीं आने वाली है। ऐसे में वह एक साल के लिए महाराष्ट्र में अपना मुख्यमन्त्री बैठाने में संकोच क्यों करे?तो शिवसेना के दृष्टिकोण से सही निर्णय होगा: भाजपा के आगे न झुकना और कांग्रेस-राकांपा के समर्थन से सरकार बनाना।हमने शिवसेना के दृष्टिकोण से महाराष्ट्र की राजनीतिक परिस्थिति का विश्लेषण किया; अब देखते हैं भाजपा का दृष्टिकोण।भाजपा के लिए भी वही दो विकल्प हैं: शिवसेना की ज़िद के आगे झुक जाना, या न झुकना।भाजपा के झुकने का अर्थ होगा अगले पॉंच सालों तक शिवसेना का कनिष्ठ सहयोगी बन कर महाराष्ट्र में सरकार चलाना, और न झुकने का अर्थ होगा महाराष्ट्र में सरकार में भागीदार न होना। इन विकल्पों में से चुनने से पहले भाजपा को यह भी देखना होगा कि उसके फ़ैसले का राज्यों में और विशेषतया उन राज्यों में जहाँ निकट भविष्य में चुनाव होने वाले हैं, क्या असर होगा।अगले दो महीनों में झारखण्ड में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। पहले तो यही देखें कि झारखण्ड के चुनाव जो पिछले चक्र में महाराष्ट्र और हरियाणा साथ ही हुए थे, इस बार अलग से क्यों कराये जा रहे हैं? मेरी समझ से तो इसका एक ही उत्तर हो सकता है: सरकार जानती थी कि हरियाणा और महाराष्ट्र में नतीजे कैसे होने जा रहे हैं, और वह नहीं चाहती थी कि झारखण्ड भी उसी रास्ते पर निकल जाय; सरकार महाराष्ट्र और हरियाणा से सीखे गये सबक को झारखण्ड में लागू करके ही वहाँ चुनाव लड़ना चाहती थी। झारखण्ड में भी भाजपा की अपनी सरकार नहीं है; वहाँ वह आजसू साथ गठबन्धन में सत्ता में है। इसके बाद दिल्ली-विधानसभा के चुनाव हैं: वहाँ परिस्थितियाँ कुछ अलग हैं, वहाँ की चर्चा फिर कभी की जाएगी; इसके बाद बिहार में चुनाव होंगे, जहाँ भाजपा जदयू के साथ गठबन्धन में सत्तारूढ़ है। भाजपा महाराष्ट्र में जो निर्णय लेगी, उसका असर झारखण्ड और बिहार में उसके गठबन्धनों पर अवश्य पड़ेगा। अगर भाजपा महाराष्ट्र में झुक गयी, तो उसे झारखण्ड में भी झुकना पड़ेगा, और बिहार में और ज्यादा झुकना पड़ेगा। इसलिए भाजपा के लिए शिवसेना की दबंगई के आगे समर्पण करने का तो सवाल ही उठता।अब अगर भाजपा शिवसेना के आगे झुक नहीं सकती, और शिवसेना अपना मुख्यमन्त्री बनवाने और मंत्रिमण्डल में भारी-भरकम विभागों साथ आधे विभाग लेने से कम पर भाजपा के साथ समझौता करने को तैयार नहीं है, भाजपा-शिवसेना की सरकार तो बन नहीं सकती, ऐसे में भाजपा के पास एक विकल्प बचता है: बिना शिवसेना के समर्थन के ही सरकार बनाने का प्रयास करना। यह काम कम से कम दो तरीकों से हो सकता है, और दोनों ही तरीकों में भाजपा के लिए धैर्य और वाणी-संयम आवश्यक होंगे, और यह दोनों गुण-कर्म फ़िलहाल प्रदर्शित कर रही है, जिससे लगता है कि भाजपा परिस्थिति की जटिलता से न घबरा कर लम्बा खेल खेलने के लिए तैयार है। परिस्थिति शतरंज की एक उलझी हुई बाज़ी की तरह बनी हुई है, जिसमें पहले धैर्य खोने और गलती करने वाला पक्ष ही हारता है, और भाजपा के लिए जल्दबाज़ी का कोई कारण है ही नहीं।

केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार है, शिवसेना जिसमें भागीदार है, पर शिवसेना के सरकार में से निकल जाने से सरकार के लिए कोई खतरा नहीं पैदा होता। महाराष्ट्र की वर्तमान विधानसभा की आयु ८ नवम्बर तक है, और तब तक अगर सरकार गठित नहीं भी हो पाती है, तो इससे भाजपा को कोई फ़र्क नहीं पड़ता: वह राष्ट्रपति-शासन की आड़ में राज्य पर शासन जारी रख सकती है। इसलिए भाजपा के लिए वर्तमान परिस्थिति में सबसे अच्छी रणनीति (Strategy) है: शान्ति। अगर वह अनावश्यक बयानबाज़ी से बचे रहते हुए केवल इतना सुनिश्चित कर सकती है कि उसके विधायक न टूट जायँ, तो उसे कुछ और करने की ज़रुरत नहीं। अवसर की यह अनुकूलता (Advantage) किसी अन्य के पास नहीं है; खेल के अन्य पक्षों को प्रतीक्षा करने से नुक्सान ही हो सकता है।अब भाजपा बिना शिवसेना के समर्थन के सरकार कैसे बना सकती है? यहाँ अलेक्ज़ैंडर कोतोव की सीख: “वज़ीर के आगे देखो” काम आती है।भाजपा ऐसा शिवसेना और/ या राकांपा के विधायक-दल को तोड़ कर सकती है। यह अनैतिक अवश्य है, पर आज राजनीति में नैतिकता केवल वही ढूँढते हैं, जो उसमें और कुछ (जैसे सत्ता, शक्ति, पैसा आदि) नहीं ढूँढ पाते; यह तो एक युद्ध है, जिसमें सब जायज़ है।हमने देखा कि महाराष्ट्र में चुनाव-परिणाम घोषित होने और शिवसेना के आक्रामक तेवरों के लगातार और खुले प्रदर्शन के बाद विभिन्न दलों के पास क्या-क्या विकल्प हैं। यह चर्चा की गयी कि शिवसेना अगर थोड़ी परिपक्वता दिखाती, तो भाजपा के साथ सरकार के गठन में अपने लिए गठबन्धन में अपने विधायकों के अनुपात से अधिक हिस्सेदारी ले सकती थी, पर पिछले पाँच सालों से भाजपा के कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका करते-करते उसका धैर्य चुक गया था, और और पहला मौका मिलते ही शिवसेना ने भाजपा के विरुद्ध विष-वमन आरम्भ कर दिया। यद्यपि राजनीति और राजनय (DIPLOMACY) में कई बार जो कहा जाता है, उसका वही मतलब नहीं होता, और सामान्यतया इन क्षेत्रों के खिलाड़ी परस्पर विरोधी और एक से अधिक अर्थों वाली बातें किया करते हैं, विद्वान् जिनके अर्थों का निरूपण करते रहते हैं, पर जब कोई व्यक्ति या दल लगातार किसी के विरुद्ध एक ही स्वर में लम्बे समय तक बयानबाज़ी करता रहे, और उसके हर बयान में कटुता का स्तर बढ़ता जाय, तो उसकी बातों का वही मतलब समझना पड़ता है जो सीधे-सीधे निकलता है। शिवसेना ने भाजपा के ख़िलाफ़ इतना बोल दिया है कि यह मानना पड़ता है कि शिवसेना सरकार में भाजपा के नेतृत्व में कनिष्ठ सहयोगी की हैसियत से सरकार में रहने के अपने रास्ते बन्द कर दिये हैं। शिवसेना का यह व्यवहार किसी भी दृष्टिकोण से एक परिपक्व राजनीतिक दल जैसा नहीं कहा जा सकता। एक तो उसने अपनी स्थिति का आकलन बहुत बढ़ा-चढ़ा कर किया है; वह इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पा रही है कि महाराष्ट्र की राजनीति में भी अब बड़े भाई की भूमिका में भाजपा ही है, पाँच साल पहले की तरह वह नहीं, और दूसरे भाजपा के बदले हुए चरित्र और तेवर को समझने में भी उसने भारी भूल की है। अगर ज़माना वाजपेयी और आडवाणी का होता, तो शायद उद्धव ठाकरे केवल अपने वाग्बाणों से भाजपा को अपनी शर्तें मानने के लिए मजबूर कर लेते, पर यह भाजपा वाजपेयी-आडवाणी की नहीं, मोदी-शाह की है: इसे खतरे उठाने से उतना डर नहीं लगता, और शिवसेना कोई इतना बड़ा खतरा है भी नहीं। इस भाजपा को उद्धव ठाकरे इतनी आसानी से नहीं झुका सकते। फिर इन दोनों गलतियों से बड़ी तीसरी गलती जो वह लगातार करते जा रहे हैं, वह है अपने सारे पत्ते खोल देना।

आज कोई समझदार नेता मोदी और शाह को खामखा नाराज़ नहीं करना चाहेगा: मुलायम सिंह से लेकर केजरीवाल और ममता दीदी सरीखे उदाहरण हमारे सामने हैं जो मोदी के प्रबल विरोधी होने के बावजूद शान्त हो गये, पर ठाकरे बार-बार मोदी और शाह को यह सन्देश दे रहे हैं कि भविष्य में वह उन पर भरोसा न करें। अगर कभी बाद में फिर शिवसेना को मोदी के साथ आना पड़ा- और यह बहुत जल्द हो सकता है, (यहाँ तक कि कुछ दिनों के अन्दर भी) तो अपनी शर्तें मनवाने का उनका अधिकार और उनकी क्षमता कम ही होती जाएगी। आज भाजपा के समक्ष समर्पण न करने की उनकी ज़िद भविष्य में भाजपा के समक्ष उनके पूर्ण समर्पण के ही रास्ते खोलेगी, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिए। इतना बोल देने के बाद अब अगर शिवसेना भाजपा के साथ बिना मंत्रिमण्डल में आधी सीटें और ढाई सालों के लिए मुख्यमन्त्री का पद लिये सरकार में शामिल होती है, तो दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में अपना नुक्सान ही करेगी।अब अगर कहीं शिवसेना इस नुक्सान से बचने और एक बार किसी तरह अपना मुख्यमन्त्री ‘मन्त्रालय’ में बैठा देने के लिए के लिए राकांपा और कांग्रेस के समक्ष समर्पण करती है, तो उसे और ज्यादा नुक्सान होता है। उसे अपना प्रखर हिन्दुत्व का मुद्दा छोड़ना पड़ेगा, और कदम-कदम पर अपने नये सहयोगियों की जायज़-नाजायज़ माँगें माननी होंगी और इसके बाद भी लगातार समर्थन-वापसी की तलवार के नीचे काम करना होगा क्योंकि राकांपा और कांग्रेसशिवसेना को समर्थन अपने जनाधार की कीमत पर ही देंगे, और वह समर्थन तभी तक जारी रख सकेंगे जब तक उसकी कीमत उनके गिरते जनाधार की प्रतिपूर्ति करती रहे। यह सब शिवसेना के मूल व्यवहार से मेल नहीं खाता। इसके अतिरिक्त राकांपा और कांग्रेस के नेता यह कह रहे हैं कि वह शिवसेना को समर्थन किसी सूरत में नहीं देंगे, परन्तु जैसा कि ऊपर कहा गया है: राजनीति में कही गयी बातों का सामान्य से कुछ अलग ही अर्थ होता है, और जब शरद पवार यह कहते हैं कि वह शिवसेना को समर्थन किसी भी हाल में नहीं देंगे, तो उसका अर्थ यह भी हो सकता है कि अगर शिवसेना उनके पास कोई बुद्धि-संपन्न (REASONABLE) प्रस्ताव लेकर आती है, तो वह उनका समर्थन कर भी सकते हैं, और कांग्रेस तो वही करेगी जो राकांपा करेगी; सन्देह केवल शिवसेना के विनम्रतापूर्वक एक राकांपा के मान लेने लायक प्रस्ताव उनके पास लेकर जाने के विषय में है। शिवसेना भाजपा के विरुद्ध अपने बयानों में अपना विवेक खो चुके होने की कहानी कह रही है, और अब उससे विवेकयुक्त आचरण की आशा करना बहुत कठिन जान पड़ता है।‘गेम थ्योरी’ के आधार पर समस्याओं के सारे हल इस धारणा पर टिके होते हैं कि दोनों खिलाड़ी विवेकयुक्त आचरण ही करेंगे।अगर एक खिलाड़ी जानबूझ कर अविवेकपूर्ण आचरण पर तूल जाय, तो बड़े से बड़ा गणितज्ञ उसके व्यवहार का पूर्वानुमान नहीं लगा सकता। शिवसेना आगे क्या करेगी- इसका अनुमान इस धारणा के आधार पर ही लगाया जा सकता है कि अब तक के गैर-पेशेवर और मूर्खतापूर्ण रवैये के बाद अब वह अपना फ़ायदा-नुक्सान देखकर विवेकपूर्ण निर्णय करेगी। अगर ऐसा होता है, तो वह उपमुख्यमन्त्री का पद और एक तिहाई से एकाध मन्त्री अधिक लेकर भाजपा के साथ समझौता कर लेगी। अगर कहीं उद्धव ठाकरे का अहम् उनके भाजपा के साथ समझौता करने के आड़े आता है, और उसके बाद वह विवेकपूर्ण व्यवहार करते हैं, तो विनम्रतापूर्वक शरद पवार के पास जाएंगे, और उनके और कांग्रेस के साथ उनकी शर्तों पर सरकार बनाएंगे, और अगर कहीं वह दोनों के बीच झूलते रहे तो देर-सबेर भाजपा उनके विधायक तोड़ कर सरकार बना लेगी।

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