भावभूमि:स्मृतियों का महारास
स्मृतियों का अपार प्रवाह। जब तक चेतना का स्पंदन है तब तक इस लीला भूमि में अपने होने का अहसास जीवंत है । जब तक हम अपने होने के अहसास से रोमामंचित हैं तब तक ही यह सृष्टि हमारी संगिनी है , जीवन है , राग है , लय है , मोह है , माया है , स्मृतियों का महारास है।
स्मृतियों से मुक्ति ही मोक्ष है। जो फिलहाल अपने को नहीं चाहिए –
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥
प्रकृति की श्रेष्ठ रचना प्रकृति ही है। प्रकृति के द्वारा ही समूचे ब्रह्माण्ड की रचना हुई । ‘प्र’ का अर्थ है ‘प्रकृष्ट’ और ‘कृति’ से सृष्टि के अर्थ का बोध होता है। प्रकृति का मूल अर्थ यह ब्रह्माण्ड है। इस ब्रह्माण्ड के एक छोटे से, अंश के रूप में, इस पृथ्वी का अस्तित्व है, जिस पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म हुआ है। इस पृथ्वी के बगैर मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है. प्रकृति का दूसरा रूप है, नारी। नारी के बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि कोई नहीं जीव जन्म से, पहले 9 महीने माँ की कोख में पलता है और जीव जब जन्म लेता है तो अपना आश्रय मां के आंचल मैं ही पाता है। इसका अर्थ यह हुआ की मनुष्य का जीवन, प्रकृति नारी अस्तित्व के बगैर संभव नहीं है, इसलिए हर मनुष्य का पहला कर्तव्य होता है कि वह नारी का सम्मान करे, उसकी रक्षा करे, और उससे मिलने वाली खुशियों का आदर करे। यह समझना होगा की जीवन का सही रूप नारी और प्रकृति ही है। बगैर नारी के सहयोग के पुरुष पूर्ण नहीं हो सकता।
हमें अपने बचपन में झांक कर देखना होगा कि अपने परिवेश और समाज से उसे क्या मिला, और आने वाली पीढ़ी को वो क्या देने जा रहा है। नारी गौरव का विषय है, नारी मन का सम्पूर्ण सम्मान और सहयोग पाने के लिए पुरुषों को पुरुषार्थ प्राप्त करने की आवश्यकता है। पुरुषार्थ दंभ और अहंकार से परे का वह वृत्ति है, जो पुरुषोचित व्यक्तित्व प्रदान करता है। प्रकृति, व्यापकतम अर्थ में, प्राकृतिक, भौतिक या पदार्थिक जगत या ब्रह्माण्ड हैं। “प्रकृति” का सन्दर्भ भौतिक जगत के दृग्विषय से हो सकता है और सामन्यतः जीवन से भी हो सकता हैं। प्रकृति का अध्ययन, विज्ञान के अध्ययन का बड़ा हिस्सा है। यद्यपि मानव प्रकृति का हिस्सा है, मानवी क्रिया को प्रायः अन्य प्राकृतिक दृग्विषय से अलग श्रेणी के रूप में समझा जाता है। मानव और पशुपक्षी आदि सभी प्रकृति की ही तो देन है! मानव अपनी विकास की ओर बढता जा रहा है ! पर वह प्रकृति की अनदेखा कर रहा है !
हम प्रकृति से जितना दूर जाते रहेंगे, प्रकृति हमें उतना दूर करती रहेगी ! सभी जीवधारियों का अंत होता है। ‘केहि जग काल न खाय।‘ वनस्पति और जंतु सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं और उनका शरीर नष्ट हो जाता है। परंतु यदि एक-कोशिक जीव बड़ा होकर अपने ही प्रकार के दो या अधिक जीवों में बँट जाता है तो इस घटना को पहले जीव की मृत्यु कहेंगे क्या ?
वैसे तो संतति भी माता-पिता के जीवन का विस्तार ही है, उनका जीवनांश एक नए शरीर में प्रवेश करता है। सांख्य दर्शन को भी एक दृष्टि से अनीश्वरवादी दर्शन कह सकते हैं। सांख्य की मान्यता है कि पुरूष एवं प्रकृति दो अलग तत्व हैं और दोनों के संयोग से सृष्टि उत्पन्न हुई। पुरूष निष्क्रिय है और प्रकृति चंचल; वह माया है और हाव-भाव बदलती रहती है। पर बिना पुरूष के यह संसार, यह चराचर सृष्टि नहीं हो सकती। उपमा दी गई कि पुरूष सूर्य है तो प्रकृति चंद्रमा, अर्थात उसी के तेज से प्रकाशवान।
अगर भूलने की प्रवृत्ति नही होती तो नई शुरुआत नहीं होती । परिवर्तन एक अपराजित सत्य है। देखते देखते कितना कुछ बदल जाता है , इतना कि हम अपने आप को नहीं पहचान पाते। इस मृत्यु लोक मे को भी सृजित होता है वह विसर्जित होता है। यह सत्य जानने के बावजूद हम सब अपने आसपास एक ऐसी सृष्टि रचते हैं जैसे यह सब अजर अमर है। यह एक चेतन बुलबुले का अपना संसार होता है। जब यह सब जब झरने लगता है तब बेचैनी होती है। स्मृतियों का महारास ऐसे समय महापाश बन जाता है – जन्म और मृत्यु दोनों असाध्य कष्टकारी है। इसी कष्ट से से मुक्ति की बात की जाती है। परम सत्ता की शरण में जाने की बातें की जाती हैं।
जनमत मरत दुसह दुख होई …
- टिल्लन रिछारिया