बहुत खलेगा अनिल धारकर का जाना !

  • हरीश पाठक

मुम्बई के भद्रलोक का वे एक ऐसा चेहरा थे जो बेहद आम और खास व्यक्ति से भी पलक झपकते ही अपने रिश्ते बना लेते थे।कभी खत्म न होनेवाले रिश्ते।पत्रकारिता हो,साहित्य हो,फ़िल्म हो,कला हो या किताबों का विस्तृत संसार अनिल धारकर का मतलब था सबसे अलग नजर,सबसे बेहतर नजरिया।आज सुबह देश के इस दिग्गज संपादक ने 74 साल की उम्र में मुम्बई अस्पताल में अंतिम सांस ली।वे हृदय रोग से पीड़ित थे।

अपनी अलग शैली की पत्रकारिता,सबसे जुदा वक्तव्य कला और सबसे हटकर पहनावा-चूड़ीदार पाजामा, कुर्ता,जैकेट (जो ताउम्र उनकी पोशाक रही)और घुँघराले बालोंवाले अनिल धारकर ने पढ़ाई तो यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से मैकेनिकल इंजीनियर की की,पर मुम्बई आने के बाद शिखर संपादक विनोद मेहता जो उन दिनों डेबोनैयर जैसी प्रयोगधर्मी पत्रिका निकाल रहे थे ,ने उन्हें उससे जोड़ लिया।अनिल धारकर बाद में इसके संपादक भी बने।एक खास तरीके के चित्रों के कारण चर्चित इस पत्रिका को अनिल धारकर ने ड्राइंग रूम की पत्रिका बना दिया।कविताओं का एक बड़ा सा खण्ड और अंग्रेजी साहित्य की दुर्लभ सामग्री ने इस पत्रिका को अलग रुतबा दिला दिया।

यही अनिल धारकर की पहचान थी।अलग करना,अलग दिखना।जब वे एनएफडीसी (फिल्म विकास निगम) के मुखिया बने तो उन्होंने उन फिल्मकारों की पहली फिल्म को आर्थिक सहायता दिलवाई जो बाद में देश के पहली पंक्ति के फिल्मकार बन गये।वे फिर गोविंद निहलानी हो,सईद मिर्जा हो,अपर्णा सेन हो,विधु विनोद चोपड़ा हो,केतन मेहता हो या गौतम घोष हो।यही नहीं रिचर्ड एटनबरो की विश्व प्रसिद्ध फिल्म ‘गांधी’ का सह निर्माता एनएफडीसी अनिल धारकर के ही कार्यकाल में बना था।जब वे सेंसर बोर्ड की एडवाइज़री बोर्ड के सदस्य बने तब उन्होंने कुछ ऐसे सुधार करवाये जो आज बेहद जरूरी लगते हैं।

वे अनिल धारकर ही थे जिसने दक्षिण मुम्बई के विशाल आकाशवाणी ऑडिटोरियम को (जो अकसर खाली ही रहता था)कला फिल्मों के लिए खुलवा दिया। बाद के दिनों में वह कला फिल्मों का तीर्थ बन गया।वे मुम्बई इंटर नेशनल लिट् फेस्ट के फाउंडर थे और उसे उन ऊंचाइयों तक पहुँचा दिया कि नवम्बर आते आते लोग उसका बेसब्री से इंतजार करने लगे।

अंग्रेजी के इस कद्दावर संपादक के साथ मैंने कभी काम तो नहीं किया पर उनका सान्निध्य मुझे जरूर मिला। जिन दिनों मैं ‘धर्मयुग'(1986 से 1997) में था तब टाइम्स ऑफ इंडिया के मुम्बई ऑफिस के चौथे माले पर पत्रिकाओं के ही दफ्तर हुआ करते थे।माधुरी, फ़िल्मफ़ेअर,साइंस टुडे,फेमिना,धर्मयुग और अंत में इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया। अनिल धारकर वीकली के संपादक हो या इंडिपेंडेंट के मेरा उनसे सतत सम्पर्क था।कारण भी साफ था।मैं धर्मयुग में पूरे 11 साल तक आवरण कथा व राजनीतिक पेज ही देखता रहा ।संपादक डॉ धर्मवीर भारती हो,गणेश मंत्री या विश्वनाथ सचदेव।दुनिया भर के चित्रकारों,छायाकारों,लेखकों से मेरा संपर्क था।वे मनजीत बाबा हो या मनु पारेख या सतीश गुजराल।वे जितेंद्र आर्य हो या दयाराम चावड़ा।वे मुकेश पारपियानी हो या प्रदीप चन्द्र।पारदर्शियों व छायाचित्रों का एक बड़ा खजाना मेरे पास रहता था।यही वजह थी कि जब भी किसी खास चित्र की दरकार होती अनिल धारकर या तो मुझे बुलाते या बहुत इत्मीनान से मेरे पास आकर उस खजाने से चाही तस्वीर खोजते।एकाध बार तो जितेंद्र आर्य के होटल ताजमहल के पास स्थित उनके घर पर भी मैं उनके कहने पर ही गया था।उस वक्त एक बड़े संपादक का सोच का,नजर का -व्यापक कैनवास मैने देखा ।रँगों की शिनाख्त का गजब तौर तरीका।आज कहाँ है ऐसे संपादक?

सदी के सबसे बड़े आदमी गांधी के जबरदस्त प्रशंसक अनिल धारकर की बहुचर्चित पुस्तक ‘रोमांस ऑफ साल्ट’ दांडी मार्च पर कभी न भूलनेवाली किताब है। कभी न भूल पायेंगे हम उस अनिल धारकर को जो पत्रकार तो अंग्रेजी के थे पर उनका लिखा भाषा, देश और सरहदों के पार था।बहुत मुश्किल से बन पाते हैं अनिल धारकर। सादर नमन सर।

*हरीश पाठक की फेसबुक वाल से

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