पहल

‘पहल’ के साथ जुड़ी उनकी पैदल सेना ने भी बहुत काम किया। एक समय पहल के दिल्ली प्रतिनिधि के रूप में मेरा नाम जाता था, लेकिन कुछ लोगों के दबाव में आकर मेरा नाम हटा दिया गया। लेकिन इसके हर अंक को सादतपुर विस्तार और उसके बाहर के अनजान पाठकों तक पहुंचाया।’पहल’ को जे.एन.यू तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तक विक्रेताओं तक अंक पहुंचाने का कार्य उनके इस सिपहसालार ने ही किया। इसके साक्षी हैं उस समय जेएनयू में पढ़ रहे छात्रगण ।

युवाकवि पंकज चतुर्वेदी, कृष्ण मोहन झा, जितेंद्र श्रीवास्तव और अरुण देव, जो आज के ख्यातनाम कवि ही नहीं आलोचक और संपादक भी हैं। प्रख्यात आलोचक आदरणीय मैंनेजर पांडे, कवि-श्रेष्ठ स्व.केदार नाथ सिंह जी से भेंट करने का अवसर पहल ही मुहैया कराती रही।

ज्ञानरंजन

एक बार प्रख्यात पत्रकार-विचारक रामशरण जोशी ने मुझसे कहा था, “सुना है कि आपने मुफ्त में लोगों का काम करने का ठेका ले रखा है।” मैं समझ गया कि जोशी जी क्या कहना चाह रहे हैं।” क्योंकि उस समय मेरे कंधे पर ‘ पहल’ के नये अंक की सौ प्रतियों से भरा झोला लटका था।

मेरे सुख-दुख के साथी कथाकार महेश दर्पण कहा करते हैं, आप बहुत संकोच सुभाव के हैं।अपने बारे कभी कुछ बोलते नहीं।ज्ञान जी को मालूम है कि उनकी पैदल सेना ने देश के सुदूर इलकों में ‘पहल’ के अंक पहुंचाये।

हमने ‘पहल’ में छपने का लोभ पीछे ढकेला और उसके अनुरूप बनने की कोशिश की। यह ज्ञान जी की मुहब्बत थी और है कि उनके सिपहसालारों ने उनसे कभी कोई शिकायत भी नहीं की। वे निरंतर साथ रहे। आज ‘पहल’ के बंद होने का ऐलान हो चुका है, लेकिन सुनने पर एक खूनी लहर कलेजे को चीरती हुई निकल जाती है और वहां से एक स्थायी रक्तस्राव की जगह बन जाती है।

‘पहल’ ने अच्छा पढ़ने-लिखने की आदत डाली। लोगों से संवाद करने की ख्वाहिश पैदा की। ‘पहल’ न होती तो मनुष्य की आजादी, उसके स्वप्न और सरोकार की रचनात्मकता और मनुष्य द्रोही लेखन के विभेद को न पहचान पाते। ‘पहल’ से जिनको लाभ लेना था, वे ले चुके । बंद हो भी जाए उनके टिल्ले से। लेकिन ‘ पहल’ ने अपने आशिकों के दिल में जो लौ जला रखी है, वह बुझेगी क्यों, इस स्थिति में उसका उदास-राग हमेशा बेचैन करता रहेगा।ज्ञान जी का व्यक्तित्व असाधारण रूप से हमारे भीतर ठहरा हुआ है। उन्होंने अपने भीतर के ठाठें मारते अनुराग से, धक धक करते प्यार से, सनसनाती मोहब्बत से, मौलिक-लौकिक प्रतिभा से हिंदी के ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक समुदाय को बांधक‌र रखा। ज्ञानजी का अपने मित्रों पर फुल कमांड रहता रहा। जो उनके कमांड से बाहर हुआ, वह विस्मृति की लहर में गुम हो गया।

हीरालाल नागर

ज्ञान जी से सब अटूट प्यार करते हैं, उन्हें सम्मान देते हैं। हिंदी कहानी का मिथ जो एक बार बना वह पाठकों में स्वप्न तथा यथार्थ के धुंधले /झीने पर्दे-सा आज भी तना हुआ है। उनका हर साथी यही सोचता है/ सोचता रहा कि ज्ञान जी उसे सबसे ज्यादा चाहते हैं।मैं उन लोगों को अच्छी तरह जानता हूं, जो पीठ पीछे ज्ञान जी की गंभीर आलोचना करते रहे हैं। इससे यह लगता रहा कि अपनी बेमिसाल खूबियों के साथ वे आखिर एक इंसान ही हैं, लेकिन मेरे लिए इनसे बेहतर इंसान ढूंढ़ पाना मुश्किल है।… https://www.facebook.com/hiralal.nagar.7

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