पर्यावरण के लिए कितने समर्पित हैं हम/ ज्ञानेंद्र रावत 

ज्ञानेंद्र रावत

 पर्यावरण की रक्षा हेतु बड़ी-बड़ी बातें होंगी। यही नहीं इस सम्बंध में बड़ी-बड़ी घोषणाएँ और दावे किए जायेंगे। विचारणीय यह है कि क्या इसके बाद कुछ कारगर कदम उठाये जाने की उम्मीद की जा सकती है। हालात तो इसकी गवाही देते नहीं हैं। पिछला इतिहास इसका जीता-जागता सबूत है। अपने देश भारत की तो बात ही अलग है, यदि अपनी ताकत के बल पर पूरी दुनिया के अधिकांश देशों को अपने इशारों पर नचाने वाले देश अमेरिका की बात करें तो पता चलता है कि अमेरिका के वित्तीय हितों के आगे कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं है।

पर्यावरण रक्षा का सवाल भी अमेरिका के लिये कोई खास अहमियत नहीं रखता। इस बाबत अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कथन भी इसकी पुष्टि करता है। डोनाल्ड ट्रंप के बारे में तो पहले से ही पता था कि वह पर्यावरण हितों के कितने विरोधी हैं। उनके द्वारा अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण संस्था का बजट लगभग समाप्त कर दिया जाना इसका ज्वलंत प्रमाण है। जबकि पूरा विश्व पेरिस समझौते का सम्मान करता है लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसके बिल्कुल अलग राय रखते हैं। वह इस मामले में अलग ही सोचते हैं। अमेरिका का इससे हटना पेरिस समझौते की भावना के लिये घातक होगा। अब इतना तो तय है कि अमेरिका ट्रंप के शासनकाल में उत्पादन बढ़ाने में मददगार वह हर काम करेगा, वह चाहे अधिकाधिक मात्रा में कोयला निकालने का सवाल हो या अधिकाधिक बिजली घरों के निर्माण का सवाल हो। इससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा।

देखा जाये तो अमेरिका के लिये यह कुछ भी नया नहीं है। वह पहले भी रियो से लेकर पेरिस तक अपने हितों के लिये अपनी सुविधानुसार नियमों को बदलता रहा है। गौरतलब है कि आज से पाँच दशक पूर्व अमेरिका में ही मनाए गए पहले पृथ्वी दिवस को आधुनिक पर्यावरण आंदोलन की शुरुआत की संज्ञा दी गई थी। उसके बाद से ही दुनिया के तमाम देश पर्यावरण रक्षा की इस मुहिम को अपने सीमित संसाधनों के बावजूद परवान चढ़ाने में लगे हुए हैं। वह बात दीगर है कि वे इससे निपटने की दिशा में आने वाली दुश्वारियों का रोना रोयें लेकिन वे प्रयासरत जरूर हैं।

यह एक अच्छा संकेत अवश्य है। इसलिए बेहद जरूरी यह है कि इस मामले में चुनौतियों का सामना किए जाने हेतु पूरा विश्व एक हो। इसमें किंचित भी दो राय नहीं कि ऐसे मामले डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेताओं के रहमोकरम पर तो छोड़े नहीं जा सकते। वे कब क्या कहेंगे और क्या करेंगे, इस पर भरोसा तो बिल्कुल नहीं किया जा सकता। भले पर्यावरण की समस्या हमारी ही पैदा की हुई है लेकिन यह भी सच है कि उसका निदान भी हमें ही निकालना होगा। इस मामले में हाथ पर हाथ रखे बैठने से, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और उसे कोसने से कुछ नहीं होने वाला।

यह सच है कि पर्यावरण असंतुलन में मौसम में आए भीषण बदलाव और तापमान में बढ़ोतरी की अहम भूमिका है। मौसम में एक डिग्री सेल्सियस तक गर्मी या ठंडा होना सामान्य सी बात है लेकिन जब पूरी धरती के औसत तापमान की बात हो तो इसमें मामूली सी बढ़ोतरी के गंभीर नतीजे सामने आयेंगे। नासा की मानें तो धरती का औसत तापमान 0.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है। अब भी संभल जायें अन्यथा यदि धरती एक डिग्री गर्म हुई तो हालात और विषम होंगे। नतीजतन लोग पीने के पानी के लिये तरस जायेंगे। देखा जाये तो मौसम में यह बदलाव अलनीनों के प्रभाव का नतीजा है।

ग्लोबल वार्मिंग के मामले में पहले से ही इस बात की आशंका थी कि यदि तापमान में बढ़ोतरी की यही रफ्तार रही तो आने वाले 50-100 सालों में धरती का तापमान इतना बढ़ जायेगा कि इसका सामना कर पाना असंभव होगा। इसमें दोराय नहीं कि इस सबके लिये प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ भौतिक संसाधनों की अंधी दौड़ और हमारी जीवन शैली भी कम दोषी नहीं है। जीवन को आरामदायक बनाने वाले घरेलू उपकरणों के अत्यधिक इस्तेमाल से भी धरती तेजी से गरम हो रही है। धरती को बचाने के लिये हरियाली बेहद जरूरी है जिसके लिये पेड़ों का होना जरूरी है लेकिन विडम्बना देखिए कि टॉयलेट पेपर बनाने की खातिर रोजाना तकरीबन 27000 पेड़ काटे जा रहे हैं। अंधाधुंध जंगलों का कटान, जोहड़ और तालाबों का शहरों की तो बात दीगर है, गाँवों तक से उनका नामोनिशान मिट जाना, घरों के आंगन में पहले पेड़ होते थे, अब पेड़ की तो बात करना ही बेमानी है, आंगन में क्यारी ही खत्म हो गई। वह तो अब बीते जमाने की बात लगती है क्योंकि अब घरों के आंगन ही खत्म कर दिये गए।

बढ़ती आबादी ने फ्लैट संस्कृति को बढ़ावा दिया। नतीजतन जहाँ खेती योग्य जमीन थी वहाँ पर अब बहुमंजिला मीनारें नजर आती हैं। राजमार्गों के किनारे आज से 30-40 साल पहले जहाँ खेतों में हरियाली और सड़क किनारे छायादार पेड़ों की श्रृंखला नजर आती थी, वहाँ अब सन्नाटा या गगनचुम्बी इमारतें या कल-कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ ही धुआँ नजर आता है। गौरतलब है कि रेनफॉरेस्ट बनने में तकरीबन एक हजार साल लगते हैं लेकिन हर सेकेण्ड एक फुटबाल ग्राउण्ड जितना रेनफॉरेस्ट तबाह हो रहा है। यह सभी जानते हैं कि एयरकंडीशन पर्यावरण के लिये घातक है लेकिन इससे निकलने वाली गर्मी ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को दिन-ब-दिन और बढ़ा रही है। रेफ्रिजरेटर्स में आर-134ए नामक रेफ्रिजरेंट्स का इस्तेमाल होता है, यह सीएफसी सबसे ज्यादा ओजोन परत को नुकसान पहुँचाती है। यह कटु सत्य है कि इन दोनों को जिस तापमान में ठंडा किया जाता है, उतनी ही गर्मी यह बाहर भी भेजते हैं।

आबादी में बढ़ोतरी के चलते रेफ्रिजरेटर्स और एयरकंडीशन की मांग में बेतहाशा बढ़ोतरी चिंतनीय है। अब तो कारों में एसी और घरों में फ्रिज आम बात है। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पर्यावरण असंतुलन का कारण बन रहा है। लेकिन इस ओर ध्यान किसका है। यह दुखद है। लैपटॉप डेस्कटॉप से अच्छा विकल्प है। लैपटॉप डेस्कटॉप से 5 गुना कम ई-वेस्ट पैदा करता है। प्लास्टिक के खतरों के बारे में जानते-बूझते और चेतावनी के बावजूद सब मौन हैं। असल में प्लास्टिक की बोतल 450 साल में गलती है। कई बार इसके अवक्रमण में एक हजार साल तक लग जाता है। उत्तर पूर्वी प्रशांत महासागर में 40 सालों में प्लास्टिक कचरे की मात्रा में 100 गुणा बढ़ोतरी हुई है। इससे जलीय जंतुओं को सांस रुकने और अन्तरग्रहण का खतरा पैदा हो गया है। आर्कटिक महासागर की सतह पर तैरते प्लास्टिक के 300 अरब टुकड़े किस तरह ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रहे हैं लेकिन दुख इस बात का है कि इस बारे में कोई नहीं सोच रहा।

यह सच है कि हमने विकास का एक ऐसा मॉडल अपनाया है जो निरंकुश उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रहा है। यह किसी के भी हित में कदापि नहीं है। भारत और चीन जैसे देश जो विकास की खातिर पश्चिमी मॉडल के अनुसरण में अंधे हो रहे हैं, वह बेहद खतरनाक है। इस मॉडल में प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन को नकारा नहीं जा सकता। यह भी सच है कि औद्योगिक रूप से विकसित राष्ट्रों में होने वाले कार्बनिक उत्सर्जनों ने समूची दुनिया की आबोहवा को खतरनाक स्थिति तक नुकसान पहुँचाया है जिससे पैदा मौसमी बदलाव ने लाखों लोगों के सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। निष्कर्ष यह कि यदि अब भी सतर्क नहीं हुए और हमने अपनी आदतें नहीं बदलीं तो हम तो इसके दुष्परिणाम भुगतेंगे ही, आने वाली पीढ़ियाँ भी भुगतेंगी और इस अपराध के लिये वे हमें कतई माफ नहीं करेंगी।

हमें अपनी जीवनशैली बदलनी होगी। प्रकृति से जुड़ाव जो हमारे संस्कारों में शामिल था और जिससे हम दूर हो गए हैं, उसे पुनर्स्थापित करना होगा। सरकारें अपने तरीके से काम करती हैं। वह तो अभी तक जलवायु परिवर्तन के मसौदे की समीक्षा भी नहीं कर सकी है। इसमें दोराय नहीं कि पर्यावरण को साफ रखने की लड़ाई हमें कानून बनाने से लेकर उस पर अमल कराने तक के स्तर पर कई मोर्चों पर लड़नी पड़ रही है। हमें हरियाली को अपने तरीके से वापस लाना होगा और वृक्षारोपण का यह काम दिखावे के लिये आंकड़ों में नहीं, असलियत में करना होगा। पर्यावरण की रक्षा और वृक्षों के प्रति विश्नोई समाज का प्रेम और त्याग जगजाहिर है। हमें उनसे सीखना होगा तभी कामयाबी संभव है। सबसे बड़ी बात कि इसमें हर इंसान को अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पर्यावरण को बेहतर बनाने की राह आसान नहीं है और स्वच्छ पर्यावरण के बिना जीवन असंभव है। इसमें कई बाधाओं का सामना करना होगा और यदि जीवन बचाना है तो पर्यावरण की रक्षा करनी ही होगी। इसके सिवाय कोई चारा नहीं।

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