नाव की सवारी / आनंद भारती

राजनीतिक-नाव की सवारी
जिन लोगों ने कभी नाव की सवारी नहीं की है उन्हें यह समझाना कठिन है कि शरीर, मन और समझ का संतुलन कितना जरुरी होता है। मंझधार में जब नाव आंधी-तूफ़ान के बीच फंसकर डगमगाने लगती है और ऊपर-नीचे और दाएं-बाएँ होने लगती है तब लगता है कि अब डूबी तो तब डूबी। उस समय सभी की बस एक ही चिंता होती है कि कैसे डूबने से अपने को बचा लें। कुछ देर पहले के हंसी-मजाक, आपसी संवाद, अपरिचित माहौल को परिचय में बदलने की कोशिशों पर विराम लग जाता है। वे न तो नाविक या मांझी की हिदायत को सुनने के लिए तैयार होते हैं और न अनुभवी लोगों की सलाह को मानने के लिए राजी होते हैं। ऐसे लोग नाव के एक तरफ झुकते ही दूसरी तरफ अपने शरीर का बोझ डालने लगते हैं। उन्हें लगता है कि ‘यही सही रहेगा।’ लेकिन नाव, नदी और आंधी का गणित कुछ और होता है। उस गणित के सवालों को हल करने का फार्मूला मांझी के पास ही होता है जो लहरों का मुकाबला करते-करते जान जाता है कि इस हाल में क्या किया जाना चाहिए। कितना धैर्य जरुरी होता है और कितना साहस चाहिए होता होता है। जितनी भी नाव-दुर्घटनाएं हुई हैं, वहां यही निष्कर्ष आया है कि या तो लोगों ने नाव की क्षमता का अंदाज़ नहीं लिया और भारी संख्या में सवार हो गए या ‘पहले हम, पहले हम’ पार जाने के चक्कर में हड़बड़ा गए। …कुछ ऐसा ही हाल राजनीति का हो गया है। वह भी नाव जैसा ही हिंडोले ले रही है। उसपर सवार दल और नेता पहले तो हवा के साथ बहने का मज़ा खूब लेते हैं लेकिन जैसे ही किसी तूफ़ान का संकेत मिलता है तो एक-दूसरे की परवाह करना भूल जाते हैं। वे किनारे आने के पहले एक-दूसरे को गिराकर कूदने की होड़ में लग जाते हैं। उसमें कुछ डूब भी जाते हैं। जो बच जाते हैं वे पुरानी नाव को जर्जर बताकर नयी नाव की सवारी गांठने में लग जाते हैं …पुराना गठबंधन तोड़ना और नया बनाकर सत्ता की चाभी अपने पास रखना, यही लक्ष्य बन जाता है। यह अब रीति-नीति में तब्दील हो गया है। बड़े दलों के अपने चकल्लस है और छोटे दलों के अपने खुन्नस हैं ….इसमें ‘जनता’ यानी आप और हम कहीं नहीं होते हैं।

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