दुनिया ने दुनिया को नदियों के माध्यम से ही जाना
नदियां हमारी संस्कृति की वाहक हैं , हमारी सभ्यता का प्रवाह , भविष्य की भाग्यविधाता ! …जब तक यह सृष्टि है नदियां अपरिहार्य हैं । जीवन का आधार हैं नदियां ।…सृष्टि के प्रारंभ से ही नदियां हमारी सहचर हैं पोषक हैं , हमारा सद्भाव हैं । ये निर्मल अविरल नदियां हमारी सभ्यता की इबारत हैं ।…इनके तटों पर गुंजित मंत्रों का मर्म हमे ‘ वसुधैव कुटुम्बकम ‘ का भाव देता है और ‘ सर्वे भवन्ति सुखिनः ‘ का सोच ! …दुनिया के तमाम जिज्ञासु इन्हीं नदियों से पूछते है ‘ हमें हमारा इतिहास बताइये , हमारे विकास और हमारी सभ्यता की कहानी सुनाइये, हमारे साहित्य और संस्कृति का ज्ञान कराइए ।…नदियां ही तो हमें बताती हैं अब तक की दुुनिया का आंखों देखा हाल ।…नदी पर्यटन अनादि है , दुनिया ने दुनिया को नदियों के माध्यम से ही जाना …जब तक ये नदियां जीवंत हैं हम आप भी तभी तक है ।
सभ्यताओं की जननी
नदी शब्द संस्कृत के नद्यः से आया है। नदी भूतल पर प्रवाहित एक जलधारा है, जिसका स्रोत कोई झील, हिमनद, झरना या बारिश का पानी होता है। नदी — सदानीरा हैं या बरसाती।
सदानीरा नदियों का स्रोत झील, झरना अथवा हिमनद होता है और वर्ष भर जलपूर्ण रहती हैं, जबकि बरसाती नदियां बरसात के पानी पर निर्भर करती हैं– गंगा, यमुना, कावेरी, आदि सदा नीरा नदियां है नदी के साथ मनुष्य का सांस्कृतिक सम्बंध है नदियां सभ्यता की सर्जक होती हैं। सभ्यताएं पुष्पित पल्ल्वित होती हैं इनके तटों पर।
नदियां ही सभ्यताओं की जननी है । भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में नदियां मातृ स्वरूपा हैं । इन नदियों से ही हमारी संस्कृतियों का उद्गम और विकास हुआ है।
नदियां हमारे भारतीय परिवेश में जल प्रवाह मात्र नहीं , वे धार्मिक सांस्कृतिक आख्यान हैं। पौराणिक कथानकों के प्रवाह की व्याख्याकार भी हैं। नदियाँ जीती जागती जीवन धारा हैं , जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों से आबद्ध। इह लोक से परलोक तक की संगिनी। नदियां हमारे पूजा अर्चना का मूलाधार।
नदियां ही हमारे तीर्थों का आगार हैं। आज का अधिकांश वैश्विक पर्यटन तंत्र भी नदी आश्रित है। जल जीव जीवन का आत्मीय रिश्ता है। मानव जीवन की चंचलता जब सीमाएं लांघने लगी तो पाप पुण्य की अवधारणा आयी। नदियां तब पुण्य प्रदाता और पाप नाशिनी की भूमिका में आयीं । इस सन्दर्भ में गंगा की बड़ी मान्यता है। हमारे साहित्य और जन जीवन में नदी जीवंत है। जहां दो नदियों का संगम होता है, उस स्थान को हम प्रयाग कह कर हम पूजते हैं। हमने नदियों से ही यह संगम संस्कृति सीखी है।आर्यों का जीवन तो नदी के साथ ही जुड़ा है। उनकी मुख्य नदी तो है गंगा। वह केवल पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग में भी बहती है और पाताल में भी बहती है। इसीलिए गंगा को त्रिपथगा कहते हैं। नदियां अनादि काल से पूजित हैं —
गंगे ! च यमुने ! चैव गोदावरी ! सरस्वति !
नर्मदे ! सिन्धु ! कावेरि ! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु !!
नदियां जीवन की गतिशीलता का प्रतीक हैं। अनवरत प्रवाहित रहने वाली नदियां मानव को निरन्तर गतिशील रहने का सन्देश देती हैं। सभ्यता के विकास के साथ नदी और नदी जल के विभिन्न उपयोगों का सिलसिला निरन्तर जारी है। नदियों द्वारा न केवल हम पेयजल प्राप्त करते हैं वरन सिंचाई के लिये भी नदी जल का उपयोग करते हैं। नदियां आवागमन का माध्यम भी हैं। नदियां भारतीय जनजीवन और लोकसंस्कृति सेे अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। भारत में नदियों के तटों पर विभिन्न सांस्कृतिक उत्सवों का आयोजन किया जाता है।
नदियां सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के साथ साथ विकास की भी जननी रही हैं सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास नदी तटों के समीप ही हुआ है करीब साढे चार हजार वर्ष पूर्व मिस्र में नील नदी के किनारे मिस्र की महान सभ्यता विकसित हुई। नदियों के किनारे कृषि के लिये आवश्यक जल और उर्वर मिट्टी भी पर्याप्त होती है, इसीलिए सभी प्रमुख सभ्यताओं का उत्थान जल क्षेत्रों के आसपास ही होता रहा है। मेसोपोटामिया की सभ्यता का विकास ईसा सेे पैंतीस सौ वर्ष पूर्व टिगरिस नदी के तट पर और भारत की प्राचीन मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता का विकास सिंधु नदी घाटी के किनारे हुआ। नदी तटों के समीप विकसित होने के कारण ही इन प्राचीन सभ्यताओं का नामकरण नदी सभ्यताओं के रूप में किया गया है।
सिंधु घाटी सभ्यता (3300 ईसापूर्व से 1700 ईसापूर्व तक,परिपक्व काल:2600 ई.पू. से 1900 ई.पू.) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता है। जो मुख्य रूप से दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में, जो आज तक उत्तर पूर्व अफगानिस्तान ,पाकिस्तान के उत्तरपश्चिम और उत्तर भारत में फैली है।प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यता के साथ, यह प्राचीन दुनिया की सभ्यताओं के तीन शुरुआती कालक्रमों में से एक थी, और इन तीन में से, सबसे व्यापक तथा सबसे चर्चित। यह संभतः कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है।
यह हड़प्पा सभ्यता और ‘ सिंधु सरस्वती सभ्यता ‘ के नाम से भी जानी जाती है।इसका विकास सिंधु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ।
मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थे। दिसम्बर 2014 में भिरड़ाणा को सिंधु घाटी सभ्यता का अब तक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया है। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं।
यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी में फैली हुई थी इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। प्रथम बार नगरों के उदय के कारण इसे प्रथम नगरीकरण भी कहा जाता है। प्रथम बार कांस्य के प्रयोग के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता के 1400 केन्द्रों को खोजा जा सका है जिसमें से 925 केन्द्र भारत में है।80 प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है।
नदियां केवल जलधाराएँ ही नहीं जनजीवन और लोक-संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। भारत में आदिकाल से ही नदियों के महत्त्व को समझ लिया गया था जिसके कारण इन्हें धर्म और जीवन से जोड़ा गया। भारत सहित विश्व भर में नदियां सामाजिक व सांस्कृतिक रचनात्मक कार्यों का केन्द्र रही हैं। भारत में विशेष अवसरों एवं त्योहारों के समय करोड़ों लोग नदियों में स्नान करते हैं। यहाँ समय-समय पर नदियों के किनारे विशेष मेलों का आयोजन किया जाता है जिनमें विभिन्न वर्गों के लोग हिस्सा लेते हैं। नदियों के तट पर कुम्भ, सिंहस्थ जैसे विशाल मेले दुनिया में केवल भारत में ही देखने में आते हैं, जहाँ करोड़ों लोग एकत्र होते हैं।
नदियां जीवन का प्रतीक है। जल है तो कल है। जल जीवन का भी सर्जक है। हमारा देश तो पूरी तरह से जल संस्कृति में रचा-बसा देश है। करोड़ों लोग पवित्र नदियों के तट पर लगने वाले कुम्भ जैसे विशेष मेलों में इकट्ठे हो जाते हैं। यह जल संस्कृति का सबसे बड़ा प्रमाण है।
‘ नदी पर्यटन ‘ के इस प्रथम चरण में– गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी नदियां — ‘ नदी सप्तक ‘ के रूप में प्रस्तुत हैं। हमारा प्रयास नदियों के उद्गम से ले कर ‘ सागर मिलन ‘ तक की ‘ नदी यात्रा ‘ को पर्यटन की दृष्टि से प्रस्तुत करना है। इस यात्रा में हमारे महत्वपूर्ण पड़ाव होंगे –नदी का उद्गम,संस्कृति,धार्मिक पौराणिक आख्यान,इतिहास,साहित्य, पर्व और त्यौहार नदी यात्रा, तटवर्ती तीर्थ और शहर।
नदियां हैं तो हम हैं
नदियों के बिना हम नहीं , हमारा समाज नहीं, हमारी सभ्यता नहीं, संस्कृति नहीं, पर्व त्यौहार नहीं ,जीवन और प्रकृति के रस रंग नहीं , लोक परलोक नहीं —
मैं जीवन संजीवनी
मैं अमरित की धार !
मैं प्रकृति की रागनी
मैं धरती श्रंगार !!
पुष्पित पुष्प ,लताएँ कोमल
शीतल शुद्ध बयार !
औषधि से भरपूर फल
सब मेरा ही उपहार !!
मैं मन से हूँ सींचती
वन,उपवन त्यौहार !
मैं जीवन संजीवनी
मैं अमरित की धार ! !
खेतों में फसलें खड़ी
मेरे जल की जागीर !
जंगल मेरी प्रार्थना
नहरें मेरा दस्तूर !!
मेरी धड़कन हैं सभी
नदियाँ रिश्तेदार !
मैं जीवन संजीवनी
मैं अमरित की धार ! !
गो ,ग्राम और देश , सब
मेरे ही हैं धाम !
मेरे बिन श्रीहीन हैं
तेरे चारों धाम !!
में जीवन संकल्प हूँ
में जीवन आधार !!
मैं जीवन संजीवनी
मैं अमरित की धार ! !
गाँव -गाँव और नगर-नगर
सागर तक मेरी राह !
सब मेरी जान-जहान हैं
सब मेरी ही चाह !!
सूरज,चाँद ,सितारे सारे
दस्तक देते मेरे द्वार !
मैं जीवन संजीवनी
मैं अमरित की धार ! !
मेरी साँसों का हुनर
देख रहे हैं आप !
रंग-बिरंगे पुष्प
सब में मेरी छाप !!
सब से मेरा राग है
सब से मेरा प्यार !
मैं जीवन संजीवनी
मैं अमरित की धार ! !
पृथ्वी पर जीवन रक्षा के लिए पानी अपरिहार्य तत्व है और नदियां इसका प्रमुख स्रोत हैं। वर्षों से बढ़ती मानव गतिविधियों और 80 के दशक तक उद्योगों के अनियमित विकास के कारण भारत में नदियों पर अधिक दबाव पड़ा और वे प्रदूषित हो गईं। यह समस्या इस बात से और भी बढ़ गई है कि एक तो हमारे यहाँ पानी समय और स्थान दोनों ही दृष्टियों से निरन्तर उपलब्ध नहीं है और दूसरे, नदियों के ऊपरी भागों से सिंचाई हेतु बहुत-सा जल पहले ही निकाल लिया जाता है।
भारत में नदियां किसी न किसी स्थान पर प्रदूषित होती हैं। गंगा को सर्वाधिक प्रदूषित नदी माना गया है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण संघ (के.प्र.नि.सं.) द्वारा वर्ष 1984 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि नदियों में 75 प्रतिशत प्रदूषण नदी किनारे स्थित छोटे-बड़े शहरों से निस्तृत अनुपचारित मल-जल से होता है और शेष 25 प्रतिशत औद्योगिक अपशिष्ट से, जो संसाधित/असंसाधित दोनों प्रकार का हो सकता है। अध्ययन में प्रदूषण के कतिपय गैर-बिन्दु स्रोतों का भी उल्लेख है जैसे खुले स्थानों पर पड़ा मल-मूत्र, कचरे के ढेर, कृषि कार्य में आने वाले खेत, बिना जले अथवा अधजले शव और पशु कंकाल आदि। इतना अवश्य है कि इन स्रोतों से होने वाले प्रदूषण की मात्रा निर्धारित नहीं की जा सकी है।
जल को जीवन का स्रोत माना जाता है मगर मानव इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव संस्कृतियों का मूल स्रोत भी जल ही रहा है। वैज्ञानिक अनुसन्धानों से पता चला है कि विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का विकास जलस्रोतों के समीप हुआ तथा जलस्रोत के नष्ट होने के साथ-साथ सभ्यताओं का बिखराव भी हो गया। नवीनतम साक्ष्य संकेत करते हैं कि वैदिक संस्कृति के विकास व सरस्वती नदी में उपलब्ध जलराशि में समानुपातिक सम्बन्ध रहा है। नदी में बढ़ते जल के साथ वैदिक संस्कृति तेजी से विकसित हुई तथा सरस्वती में जल कम होने के साथ इस संस्कृति का बिखराव प्रारम्भ हो गया।
वैज्ञानिकों ने सरस्वती नदी क्षेत्र का काल्पनिक सृजन कर यह जाना है कि हड़प्पा क्षेत्र में संस्कृति का उदय 5,200 वर्ष पूर्व हुआ, विकसित होकर शहरों को बसाया गया था तथा यह संस्कृति 3900 से 3000 ई. पूर्व बिखर गई थी। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से मानसून में आई कमी के कारण नदी तंत्र कमजोर हो गया तथा जल की उपलब्धता कम होती चली गई। पानी के अभाव से परेशान लोग घरबार छोड़ कर चले गए। वहाँ के शहर वीरान होते चले गए। ऐसा सन्नाटा छाया कि हजारों वर्ष तक उधर किसी ने झाँका तक नहीं। जब इतिहास से सीखा नहीं जाता है तो वह इतिहास भविष्य बन कर सामने आता है। आज हम फिर एक जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं। मानसून के एक बार पुनः रुठने के संकेत मिल रहे हैं। विज्ञान व प्रौद्योगिकी के विकास के कारण आज हम हड़प्पा युग के मानव की तुलना में बहुत सक्षम हैं। यदि सम्भल गए तो अपनी संस्कृति को बिखराव से बचा सकेंगे। नहीं चेते तो हमारा हाल हड़प्पा क्षेत्र के प्राचीन लोगों से अधिक बुरा होगा क्योंकि हमारी प्रति व्यक्ति जल की माँग उस युग के लोगों से बहुत अधिक है।
युगों युगों से बहती नदियां आज संकट में हैं। जलवायु परिवर्तन और बिगड़ते पर्यावरण की वजह से अविरल निर्मल नदियां अपनी आब खो रहीं हैं। नदियों ने हमें जो जीवन संस्कृति दी वो आज केवल धार्मिक आस्थाओं तक सीमित हो कर रह गयी है। हम नदी पुत्र ही नदियों के काल बन गए हैं। नदियों के साथ हमारा व्यवहार अनैतिक है। पर्यटक का मतलब गैर जिम्मेदार मुसाफ़िर और तीर्थयात्री का मतलब हर हर गंगे बोलते नदियों पर आस्था के नाम पर कूड़ा कचरा फैलाना नहीं। नदियों की निर्मलता के लिए बड़े संयम और अनुशासन की जरूरत है। आप जानते सब हैं पर मानते नहीं। ऐसा क्यों ?
एक भगीरथ युगों पहले तमाम तपस्या के बाद गंगा को पृथ्वी पर लाये थे , एक हम आप हैं जो उसकी विदाई यात्रा सजा रहे हैं। जागिये , अब आप को भगीरथ की भूमिका में आना है —
श्रद्धा संग संकल्प चाहिए
और भगीरथ लाखों लाख !
जन-जन का विश्वास चाहिए
और भगीरथ लाखों लाख !!
सरकारी आश्वाशन छोडो
अपने दम की बात करो !
चीर प्रदूषण की काई को
अपनी गंगा साफ़ करो !!
बढे कदम का साथ चाहिए !
जन-जन का विश्वास चाहिए !!
गो मुख से गंगा सागर तक
निर्मल गंगा धार चाहिए !
हरियाली से सजी सजीली
गंगा का श्रृंगार चाहिए !!
जनम-जनम का साथ चाहिए !
जन-जन का विश्वास चाहिए !!
भूखा-प्यासा मरना क्यों
अपना श्रम साकार करें !
बीमार हुई जो गंगा है
उसका सब उपचार करें !!
जोगी-जाती सब साथ चाहिए !
जन-जन का विश्वास चाहिए !!
गौ गंगा और गाँव बचेगा
तब भारत का ताज बचेगा !
अपने हाथों आज बचेगा
तब भविष्य का साज़ सजेगा !!
धरम-करम सब साथ चाहिए !
जन-जन का विश्वास चाहिए !!
निर्मल रहे गंग की धारा
लें संकल्प, बनें हरकारा !
घर-घर से भगीरथ निकलें
जागे देश बने लश्कारा !!
पूरब-पश्चिम -उत्तर-दक्खिन
सारा देश साथ चाहिए !
जन-जन का विश्वास चाहिए !!
गौ गंगा और गाँव बचेगा , तब भारत का ताज बचेगा !
अपने हाथों आज बचेगा , तब भविष्य का साज़ सजेगा !!