दम तोड़ती गांधी की खादी, गांवों से लुप्त होती करघों की गूंज

सत्यनारायण मिश्र / न्यूज़ गेटवे /  दम तोड़ती गांधी की खादी / गुवाहाटी /

~ सत्यनारायण मिश्र 

महात्मा गांधी ने खादी के माध्यम से गांव-जंवार को आत्मनिर्भर करने का सपना देखा था। गांधी सेवाश्रमों की श्रृंखला देश भर में तैयार की गई थी। लक्ष्य था सर्वोदयऔर गांवों के करघों को जीवित रखने एवं महिलाओं को अपने पैरों खड़े होने लायक धनोपार्जन का जरिया देने का। फिर क्यों देश में गांधी बाबा की खादी अस्तित्व संकट की अवस्था में आ गई। खादी और ग्रामोद्योग आयोग सफेद हाथी बनकर रह गया है। केवल हथकरघे से उत्पादित खादी को मिल की खादी लीलती जा रही है।

तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके असम के एक खादी संस्थान सचिव के मुताबिक खादी के लिए जीती खादी के लिए मरती संस्थाओं को कागजों के महाजाल में उलझा दिया गया है। उत्तर प्रदेश और बिहार जो कभी खादी के सबसे बड़े उत्पादकों तथा असम सिल्क के प्रमुख बाजार के रूप में जाने जाते थे, आज मिल खादी के बाजार बन गए हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार खादी को विश्वव्यापी बनाने के बड़े-बड़े दावे कर रही है। कहा जा रहा है कि खादी की बिक्री में बहुत बढ़ी है। लेकिन हकीकत अत्यंत भयावह है।  दक्षिण भारत से लेकर समूचे उत्तर भारत और पूर्वोत्तर में गांधीजी के सपनों की खादी जनगण से बिछड़ती जा रही है। केंद्र की खादी नीति ऐसी है, जिसमें खादी ग्रामोद्योग के सामने दम तोड़ने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा। खास तौर से असम व पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लिए तो इस नीति में कुछ भी नहीं है। खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के चेयरमैन इस बात का जवाब नहीं दे पाए कि असम सहित पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में हाथ से चलाए जाने वाले करघे से बुनी जाने वाली खादी के लिए आयोग क्या कर रहा है। खादी की सेवा के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हो चुके गांधीवादी भी वर्तमान में इसे लेकर काफी व्यथित हैं। उनके मुताबिक गांधी जी ने खादी उत्पादन से गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का महामंत्र दिया था। इसमें किसी भी स्तर पर बिजली के इस्तेमाल की वर्जना रही है। हाथ से चलने वाले करघे के ही इस्तेमाल की बात थी। ताकि ग्रामीण महिला बुनकरोें को कम से कम दो-ढाई सौ रुपए की दैनिक आय तो हो जाए। वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकें। बड़ी-बड़ी मिलें खादी उत्पादित कर रही हैं तो ग्रामीण बुनकरों को क्यामिलेगा। पूरी तरह सामुदायिक आधार और बिना किसी सरकारी मदद के चलने वाली संस्थाएं भी सरकारी नीति का खामियाजा भोग रही हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़ा बाजार पाने वाली असम की कतिपय संस्थाओं के सामने बंगाल से आने वाले पालिएस्टर अथवा अन्य प्रकार के सूत मिश्रित काफी सस्ते सिल्की कपड़े ने गंभीर चुनौती पेश की है।

राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित संस्था के पदाधिकारी के मुताबिक अकेले उनके अनुष्ठान के उत्पादों की बिक्री इनराज्यों में 70 फीसदी तक घटी है। यह एक उदाहरण है कि किस प्रकार मिल खादी के कारण गांधी जी के सपनों की खादी दम तोड़ रही है।

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