जो विरासत में मिला !
रामलीला का सुसंकृत परिवेश , चित्रकूट की गरिमा , रामायण मेला , बाँदा का रोमांस , प्रगतिशील कवि केदार नाथ अग्रवाल और डॉ रणजीति का सान्निध्य , पिता पुरुषोत्तम लाल रिछारिया , बाबा पं प्यारेलाल जी द्वारा रामलीला में अभिनीत उनकी भूमिकाएं व उनके लेखकीय कौशल की बानगी , रामायण मेला के संयोजक आचार्य बाबूलाल गर्ग का सुसंकृत ज्ञान , चित्रकूट इंटर कालेज , कर्वी के अपने अध्यापकों योगेंद्र दत्त द्विवेदी , सूर्यदीन शिवहरे , बलदेव प्रसाद स्वर्णकार द्वारा मिला साहित्य व अभिनय संबंधित बुनियादी ज्ञान , द्वारिकेश जी का सान्निध्य , चित्रकूट वाले सत्यनारायण शर्मा जी से मिला जीवन का यथार्थ दर्शन , बाबू बलदेव प्रसाद गुप्त व गोपाल करवरिया का स्नेह ,अजित पुष्कल , चंद्रिका प्रसाद दीक्षित , भाई गयाप्रसाद गोपाल का निच्छल अनुराग ,रामशंकर मिश्र , जयकांत , गोपाल, गोयल , राम आसरे गुप्त की मैत्री , कृष्ण मुरारी पहारिया , अहसान आवारा से तत्व ज्ञान , बी डी गुप्ता , अश्वनी सहगल , संतोष निगम , सुधीर निगम से मिली पत्रकारिता की वर्णमाला ,आलोक द्विवेदी , अरुण खरे , राजू मिश्र , मुकुंद, सत्यनारायण मिश्र ,विजय मिश्र का बड़े भाईसाहब वाला सम्मान व प्यार , शिवप्रसाद सोनी , मानिकपुर वाले श्यामलाल , सूर्यकांत अग्रवाल , रामप्रसाद , फूलचंद गुप्त , नर्मदा प्रसाद मिश्र की गहन आत्मीयता । सुहृद बाबा और हमारे घर में किराए पर रहने वाले खलीफा टेलर मास्टर । ये दो ऐसे संगी मिले जिन्होंने मेरे कृतित्व को भर पूर धार दी ।
लगभग ये ही अपनी घोषिति पारिवारिक विरासत है । इस क्षमा याचना के साथ कि हो सकता है कि कोई विभूति स्मृति से रह गई हो पर यह मेरी पूरे होशोहवास वाली आधिकारिक विरासत है ।
ये सारे लोग ही मेरे सर्जक है । बचपन रामलीला के परिवेश में बीता शुरुआत में शत्रुघ्न और लक्ष्मण की भूमिकाएं की बाद में मेघनाथ , परशुराम आदि की । मैं लक्ष्मण की भूमिका मे रहा तो पिता जी परशुराम की भूमिका में रहे । वे बाली , अंगद , दशरथ , सुतीक्षण आदि की भूमिकाएं भी निभाते थे ।
पहले पुरानी बाज़ार कर्वी की रामलीला नारद मोह से शुरू होती थी । बाद में पिता जी द्वारा लिखी शिव विवाह की लीला भी होने लगी । इसमें वे शिव की भूमिका में होते थे मैं कामदेव बनता था । अहिरावण बध की लीला बाद में जुड़ी । हमारे बाबा छंद , सवैया वाला काव्य लिखते थे । रामलीला के विभिन्न पात्रों के संवादों में उनके कवित्त का प्रयोग होता था ।सावन भादों बीतते बीतते क्वांर में होने वाली रामलीला की तैयारियां होने लगती थीं । विभिन्न भूमिकाओं के संवाद अनायास आने लगते थे ।
चित्रकूटधाम कर्वी के पुरानी बाज़ार की रामलीला संवाद प्रधान एवं अनुष्ठानिक होती थी । आज भी यह परंपरा जारी है । लंबे समय लगभग 150 सालों से हमारा रिछारिया परिवार अभिनय पक्ष की जिम्मेदारी सम्हालता था । कोई कहीं भी हो क्वांर में जरूर राम लीला में शामिल होता था । लगन , समर्पण और उल्लास के साथ लगभग एक माह तक चलनेवाले इस आयोजल की रौनक महीनों दिल दिमाग में छाई रहती थी ।…राम,लक्ष्मण,जानकी, भारत और शत्रुघ्न के पात्र किशोर वय यानी8-10 तक की उम्र के ही होते थे । विविध पात्रों में शहर के अन्य लोगों की भी सहभागिता होती थी ।गज़ब का सामंजस होता था । रिहर्सल की पररपर नहीं थी । रामलीला की प्रस्तुति का आधार मूलतः गोस्वामी तुलसी दास की रामचरित मानस होती । विभिन्न पात्रों के संवादों में राधे श्याम कथावाचक की रामायण के संवादों का भी अच्छा खासा समावेश होता था । इसके अलावा अन्य विद्वान साहित्यकारों की रचनाएं भी शामिल होती थीं । कहीं अभिनय करने वाले अपने हिसाब से अपना कृतित्व भी शामिल कर लेते थे ।
पुरानी बाजार कर्वी की रामलीला पुरातन थी आदरणीय काशीनाथ गोरे जी का नाम इसकी शुरुआत के सिलसिले में लिया जाता है ।…वर्षों से चली आरही इस परंपरा में अब काफी बदलाव आगये हैं ।अब रामलीला के लिए मंडलियों को आमंत्रित किया जाने लगा है । इनका प्रदर्शन भी दर्शनीय होता है ।
पिता जी की फाइलों में मैंने काफी पहले फ़िल्म निर्माता निर्देशक विजय भट्ट के कई पत्र देखे थे। पिता जी सन 1952 में बम्बई गए थे कई फिल्मों की कहानियां लेकर । अपनी कईकहानियां दे आये थे । राम भारत मिलन और राम हनुमान युद्ध की स्क्रिप्ट भी थी । अक्सर वे विजय भट्ट और बाबूभाई मिस्री की चर्चा किया करते थे ।
एक कहानी अक्सर बताते थे कि …एक गांव की लड़की से एक डकैत को प्रेम था । डकैत का आतंक काफी बढ़ता जा रहा था , लड़की के मना करने के बाद डकैत ने जब हरकत नहीं छोड़ी तो लड़की ने अपने पेमजाल में फंसा कर उसे गांव बुलाया और पुलिस को भी खबर कर दी ।पुलिस के साथ मुठभेड़ में डकैत पुलिस की गोली से मारा जाता है । लड़की सती होने को तैयार है । …फ़िल्म अंत कैसा होगा यह नही बताते थे ।
बाबा और पिता जी के अभिनय और लेखन दोनों मुझे विरासत में मिले । हमारे बाबा जी जो रोल करने वाला कोई न हो खुद बन कर खड़े हो जाते थे । वैसे धनुष यज्ञ में पेटूराजा का कॉमिक रोल उन्हें बहुत पसंद था ।…आलोक के पिता जी बाबा के खूब किस्से सुनाते थे , चित्रकूट इंटर कालेज बनने मे उनके योगदान की अक्सर चर्चा करते थे । वे पढ़ाते भी थे और व्यवस्थापक भी थे ।पिता जी के बारे मे बताते है अपनी जवानी मे गज़ब के फुटबॉलर थे उनका शॉट अच्छे अच्छे नहीं रोक पाते थे । जिन लोगों ने पिता जी को परशुराम और अंगद की भूमिका में उनके युवापन में देखा है वे बताते हैं कि मजबूत से मजबूत तख्त को वे अभिनय के दौरान जोश में तड़ाक से तोड़ देते थे । तब शहर के प्रसिद्ध हलवाई भगवानदीन उन्हें एक किलो रबड़ी खिलाते थे । सुना तो हमने यह भी है कि जब भी कोई नई मिठाई बनती तो भगवानदीन जी जब तक पिता जी को नहीं खिला देते तब तक बेचने को नहीं रखते ।
कर्वी शहर का बड़ा उपकार है हमारे रिछारिया परिवार और हम पर , बड़ा मान सम्मानऔर प्यार मिला ।…यह भी विरासत में मिला । …कितने लोग कितने परिवार रामलीला की वजह से आत्मीयता के गुंजलक में बंधे । पीढ़ी दर पीढ़ी आत्ममीयता बढ़ती ही गई ।
70-71 के बाद कर्वी की यह रामलीला की दुनिया धीरे धीरे हमसे दूर होने लगी । इसी बीच फ़िल्म के अखबार स्क्रीन मे फिल्मों के लिए नए चेहरों की तलाश वाला विज्ञापन पता चला । यह अखबार हमने कर्वी के गोपाल मिश्रा जी से इलाहाबाद से मंगाया था । विज्ञापन देखा मन उल्लसित हुआ बनने वाली फिल्म का नाम था ‘ किस किस को प्यार करूं ‘ हमने और हमारे हमउम्र अशोक चाचा ने फोटो आदि भेजे , उधर से सेलेक्ट होने का पत्र भी आगया । सालों हम दोनों हीरो बने घूमते रहे ।
शहर में नया नया फोटो स्टूडियो खुला था । कानपुर स्टूडियो के अवध बिहारी तिवारी ने फोटो बना दिये । बाद में ये स्टूडियो हमारे द्वारिकेश जी की बैठक का अड्डा बना ।अपने मुफलिसी के दिन हमने सम्मान से यहीं काटे ।कभी प्यार तो कभी तिरस्कार । चाय नमकीन बन्द… एक कवित्त से जानिए क्या हाल हो जाते थे
…पूछ लिम्पो , हाल मत
दिल बड़ा गमगीन है।
चाय के संग अब आती नहीं नमकीन है ।
हम हैं , उतारे बूट सा छत पर , पड़े हुए पर ,
चोट पर ऐन वख्त बंदा ही ऐस्प्रीन है ।
हुआ यह था कि अवध बिहारी फोटो खिंचाने आये कुछ लोगों का फोटो खींचने लगे , मैं बोला कैमरे में रील तो है नहीं क्या फोटो खींच रहे हैं ।…ग्राहक लौट गए 6-7 थे …यार टिल्लन कैमरे में रील है या नहीं आपसे क्या मतलब । अरे मैं उनसे कह ही रहा था कि भाई लाइट नहीं एक घंटे में आकर देख लेना फोटो ठीक आया है कि नहीं। रील ला के बाद में तो फोटो खींचना ही था । रसीद कट जाती तो पैसे तो हाथ में आ जाते । जाओ बैठो , चाय, बिस्कुट, नमकीन सब बंद ।
कभी दर्द ,कभी हमदर्द कभी बेदर्द…फिर भी यह जगह तो हमारी सुकूनगाह थी । यह झिड़की थी तिरस्कार नहीं , होता तो भी क्या।
उन दिनों में अब्दुर्रहमान अंतुले , इंदिरा गांधी और द्वारिकेश जी का बड़ा सटीक कार्टून खींच लेता था । द्वारिकेश जी सिद्धहस्त ड्राइंग मास्टर थे पर हमारी शरारत के शिकार हो जाते थे । वे कुशल अभिनेता और अच्छे कवि थे । रामलीला के बाद होने वाले नाटकों मे अक्सर नारी पात्र अभनीत करते थे । कई नाटकों मे वे हमारी नायिका की भूमिका में रहे हैं ।
मेरी आधार भूमि के द्वारिकेश जी शिल्पकार हैं , जब मैं 6वीं क्लास में था तब से वे मेरे बम्बई जाने तक बराबर निगहबान की भूमिका में रहे । उठाना , बैठना , हंसना , बोलना , सोचना , समझना यानी जीने का पूरा सलीका सिखाया । साहित्य ,सौंदर्य और सत्संग के हर पहलू से अवगत कराया । उस दौर का आप इन्हें मेरा मेंटॉर कह सकते है ।…गौरांग शरीर लचीला इतना कि जैसे जिमनास्ट वाली लड़कियां । एक बार उनका योग प्रदर्शन रामलीला के मंच पर देखा था । आप आतिश्योक्ति न मानें बाबा रामदेव से कहीं ज्यादा बेहतर योग प्रदर्शन था उनका । शायद 196 5 का साल था ।
एक बार रामलीला का दौर खत्म होने के बाद 14 नवंबर से 19 नवंबर का आयोजन ठान लिया यहीं रामलीला भवन में । कैसे संम्पन्न हुआ यह आयोजन हमे तो नहीं पता चल पाया सब शहर वासियों की कृपा रही ।कहीं हम कुछ करते तो राममनोहर वर्मा , सूर्यकांत , महेश अग्रवाल खोज कर सहयोग करते ।…हमे हमारी तमाम चाचियों का खूब सहयोग मिलता , विवेक अग्रवाल की माता जी यानी कानपुर वाली चाची औए पेट्रोल पंप वाले शंभू जैन जी की पत्नी का ।
जब बल्देव प्रसाद गुप्ता जी को जब इस आयोजन का पता चला तो बताया कि इन्हीं तारीखों में नागपुर से विश्व हिंदी वाले अनंत गोपाल शेवड़े जी सपत्नीक आरहें हैं । उनका भी कार्यक्रम भी इसी आयोजन में रखना है । गुप्ता समय के बड़े पाबंद थे ,विलंब से आने वाले अपने मुख्य अतिथियों को वे सभा से बैरंग वापस कर देते थे । गुप्ता जी इलाहाबाद से आकर कर्वी में बसे थे । तुलसी स्मारक पुस्तकालय और एक स्कूल चलाते थे।कांग्रेस के जवाहर लाल और लालबहादुर शास्त्री की संगत वाले थे । डॉ राममनोहर लोहिया जी के संगी थे । जब लोहिया जी रामायण मेला के संदर्भ में चित्रकूट आते तो उनके आतिथ्य की भूमिका गुप्ता जी ही सम्हालते थे । शहर में गुप्ता का अच्छा खासा सम्मान था ।ज्यादा पहले का तो नहीं पता पर जबसे देखा तो गुप्ता जी इलाहाबाद के लीडर और भारत अखबारों को खबरें भेजा करते । बाद में भारत अखबार के लिए उन्होंने आचार्य बाबूलाल गर्ग को जिम्मेदारी सौंप दी थी । बाद में गुप्ता जी गर्ग जी को ही रामायण का सचिव बनाया मेले की जिम्मेदारी अप्पने मुक्त कर लिया । कहते थे कि मैं बहुत अनुशाषित और कड़क स्वभाव का हूँ , सब को नहीं साध पाता ।
जब बम्बई की हिंदी एक्सप्रेस ज्वाइन करने के बाद मैं कर्वी आया तो बोले आपका अभिनंदन करना हैं । मैंने कहा कि अरे गुप्ता जी यहीं मिठाई मांगा कर खिला दीजिये । बोले अरे ये क्या , डाकबंगले में ऑफीशियल अभिनंदन होगा। सारे अधिकारी और शहर के लोग भी होंगे । गुप्ता जी अपनी चिट्ठियां खुद डाकखाने मे डालने जाते थे । किसी और को भूल क्र भी नहीं देते। और जब तक एमरजेंसी रही रोज एक सख्त लहजे की चिट्ठी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लिखते । बाद में इसकी किताब ‘ लेटर्स टू इंदिरा जी ‘ प्रकाशित की । वृत्तांत जारी है—