गुलाम बैंकरों की दास्तान / रविश कुमार
ग़ुलाम बैंकरों की दास्तान- गुलाम बैंकरों के ख़ून का ताज़ा सैंपल, पढें और हगे
क्या बैंक आफ इंडिया ने ऐसा कोई मेसेज निकाला है जिसमें लिखा है कि कोई लंच टाइम नहीं होगा। कल से उस आदेश की कापी सैंकड़ों की संख्या में मेरे पास पहुंच गई है। इसमें लिखा है कि all staff members of BOI Grant Road branch are hereby addressed that the branch does not have Lunch Time. Henceforth no staff will leave his/her post for purpose of lunch. यही लिखा है कि आदेश की कापी पर 20 मार्च 2018 की तारीख़ है। हिन्दी में मतलब हुआ है कि ब्रांच में कोई लंच टाइम नहीं है। कोई भी स्टाफ लंच के लिए कुर्सी छोड़ कर नहीं जाएगा। मेरे पास आदेश की कापी है।
जिस भी बेवकूफ़ और दुस्साहसी ने यह आदेश निकाला है उसे भूख नहीं लगती हो। अगर यही हालत रही हो तो अगला आदेश आएगा कि आप पेशाब करने के लिए कुर्सी से नहीं उठेंगे, अस्पताल जाकर पाइप लगवा लें और काम करते करते निवृत्त होते रहें।
एक सोवरेन गोल्ड बांड स्कीम आई है। इसे बैंकरों को ही खरीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है। एक बैंकर ने बताते हुए दावा किया है कि अगर इस बात का सर्वे हो जाए कि कितने बैंकरों ने एक ग्राम का ख़रीदा सोना खरीदा है तो पता चलेगा कि उसकी संख्या लाखों में हैं। उसने बताया कि सारे बैंकरों को मजबूर किया गया है ताकि यह सब एक बड़ा आंकड़ा बन सके और सरकार दावा कर सके कि हमारी स्कीम इतनी सफल रही है।
बैंकरों का कहना है कि वे भीतर से समझते हैं कि यह स्कीम उतनी अच्छी भी नहीं है तो जानते हुए अपने मन से कभी नहीं ख़रीदेंगे। बैंकर पर दबाव बनाया जाता है कि आज 50 ग्राम बेचना ही है। नहीं बिकता तो उन्हें छुट्टी नहीं मिलती और प्रमोशन नहीं मिलता है। लिहाज़ा वे खुद खरीदने पर मजबूर हो जाते हैं। आपको मैंने बताया था कि इलाहाबाद के कर्मचारियों ने भी ऐसा ही कहा था कि उनसे शेयर ख़रीदने के लिए कहा गया जबकि वे नहीं लेना चाहते थे। बहुतों ने बैंक से ही लोन लेकर बैंक का शेयर ख़रीदा और डूब गया।
बैंक सीरीज़ और ग़ुलाम बैंकरों की दास्तान पर लिखे कई लेख से अब तक आप जान चुके हैं कि बैंकरों को मजबूर किया जाता है कि अगर पालिसी नहीं बिकती है तो ख़ुद ख़रीदो। मुद्रा लोन लेने वाला कोई नहीं तो फर्ज़ी नाम से दे दो। जो लेने आए उससे बीमा लेने पर मजबूर करो। ब्याज़ के अलावा प्रीमियम लाद दो।
बैंकर जानता है कि यह ग़लत है मगर झूठ की राजनीति ने ग़लत को सही बना दिया है। बैंकरों पर प्रधानमंत्री के टारगेट को पूरा करने के लिए दबाव बनाया गया कि वे भी अटल पेंशन योजना ख़रीदें। उन्हीं का आडिट हो जाए कि कितने बैंकरों ने ख़रीदा है और उसमें से कितनों ने दोबारा प्रीमियम नहीं भरा है। इसका मतलब यह हुआ कि एक बार प्रीमियम देने के बाद आंकड़ा छप जाता है कि इतने करोड़ लोगों ने अटल पेंशन योजना ली है। डिजिटल पेमेंट वाले भीम एप को लेकर मेरे पास एक पत्र आया है। पेश कर रहा हूं।
“रवीश सर, यहां एक बहुत बड़ा आंकड़ों का फ़र्ज़ीवाड़ा हो रहा है। BHIM और USSD के टारगेट्स शाखाओं को दिए गए हैं। जिसमें हमें हर साधारण व्यक्ति को भी I AM MERCHANT में रजिस्टर करना है। इसका मतलब यह है कि देश का हर ग़रीब भी व्यापारी, और थोड़े समय बाद देश के हर ग़रीब बेरोज़गार को रोज़गार से युक्त बताकर देश के सामने ग़लत आंकड़े प्रस्तुत किए जाएंगे। हमारे बैंक में जो ग़रीब आता है, हम उसका मोबाइल फोन लेते हैं, उस पर BHIM एप डाउनलोड करते हैं, फिर उसके ही मोबाइल पर अपने मोबाइल से एक एक रुपये का दस ट्रांजेक्शन करते हैं। दस ट्रांजेक्शन करते हैं तब वह मर्चेंट में रिजस्टर हो जाता है। हम अपनी जेब से दस रुपया लगाकर सरकार का आंकड़ा बढ़ाते हैं। एक रुपये के ट्रांजेक्शन से ही डिजिटल यूज़र का टारगेट बढ़ जाता है। सरकार दावा करती है कि इतने लाख नए डिजिटल यूज़र आ गए मगर आप उसमें से दस रुपये वाले डिजिटल यूज़र का आंकड़ा मांगेंगे तो भांडा फूट जाएगा। “
हिम्मत का जवाब नहीं। अटल जी के नाम पर स्कीम बनाकर फर्ज़ीवाड़ा हो रहा है और डाक्टर अंबेडकर के नाम पर एप्लिकेशन बनाकर फ़र्ज़ी आंकड़े तैयार किए जा रहे हैं। यह दुस्साहस आज के समय में मुमकिन है क्योंकि नागरिक अपनी नागरिकता से दूर जा चुका है। वह अपनी वैचारिक निष्ठा, सांप्रदायिकता, जातिवाद से बाहर नहीं आना चाहता। बैंकरों के साथ जो हुआ है, उसे आप यूं समझ सकते हैं कि एक स्टेडियम में दस लाख लोगों को जमा कर उन्हें ग़ुलाम बनाया जा सकता है, न सिर्फ ग़ुलाम बल्कि उनकी पुरानी बचत भी निकलवाई जा सकती है। ज़रूर बैंकरों का ख़ून भी हिन्दू मुस्लिम राजनीति से ऊर्जा पाकर दौड़ता होगा, तभी तो वे नहीं देख पाए कि नोटबंदी फ्राड है, तमाम बीमा योजनाएं फ्राड हैं। अब वे मुझे लिख रहे हैं कि उनका इन बीमा योजनाओं में यकीन नहीं है क्योंकि ये स्कीम ख़राब हैं। हम और आप इन सब बातों को कहां समझते हैं ज़ाहिर है बाज़ार के ज़रिए हमारे साथ बड़ा धोखा हो रहा है। इसलिए कहता हूं कि आर्थिक ख़बरों में आंखें गड़ाइये। समझिए।
बैंकिंग सेक्टर से आए हज़ारों मेसेज पढ़ते हुए मैंने एक थ्योरी विकसित की है। सांप्रदायिकता, जिसे मैं हिन्दू मुस्लिम डिबेट कहता हूं, सिर्फ मुसलमान से या हिन्दू से नफ़रत करना ही नहीं सीखाती बल्कि आर्थिक रूप से इसकी चपेट में आए लोगों को ग़ुलाम भी बनाती है। इस डिबेट के प्रभाव में लाखों की संख्या में लोगों का दिमाग़ नफ़रत के नशे में रहता है और उनका शरीर आर्थिक शोषण के लिए उपलब्ध हो जाता है।
बैंकरों ने मेरी इस थ्योरी को साबित किया है। वे ख़ुद भी हिन्दू मुस्लिम नफ़रत की सज़ा भुगत रहे हैं क्योंकि जब आप धर्म के आधार पर साइड लेते हैं तो अपनी नागरिकता खो देते हैं। जब नागरिकता खो देते हैं तब आप ख़ुद ही संविधान की सुरक्षा उतार फेंकते हैं। धर्म के दायरे में आकर आप ख़ुद को एक खाप में समर्पित कर देते हैं जहां आप व्यक्ति नहीं, बस भीड़ हैं। इससे मुक्ति तभी मिलेगी जब बैंकर अपने हाथ से लिखेंगे, स्वीकार करेंगे कि उन्होंने हिन्दू मुस्लिम किया है। उनकी ग़ुलामी का वैचारिक ख़ुराक इसी से आता है।
मुझे पता है कि बैंक के मुख्यालय वाले सीनियर मेरा हर लेख पढ़ने लगे हैं। इसलिए यह लाइन लिख रहा हूं। बताने के लिए कि झूठ की दुकान ज़्यादा दिनों तक नहीं चलती है। आपके बच्चे भी इस मक्कारी की दुनिया में जीने के लिए मजबूर होंगे और आप इस्तमाल के बाद एक दिन जेल में फेंक दिए जाएंगे। लेदर की कुर्सी और ब्लैक सूट काम नहीं आएगा। कितना करोड़ जमा कर लेंगे आफ लोग कमीशन से। आख़िर झूठ और मक्कारी बाहर आ गई न। सुप्रीम कोर्ट जांच करवा ले कि बैंकरों को स्कीम ख़रीदने के लिए मजबूर किया गया है कि नहीं। बात ख़त्म। मैं तो दावा नहीं कर रहा, आपके ही कर्मचारी बता रहे हैं मुझे। अब आगे बढ़ते हैं।
मेरी इस सीरीज़ की प्रतिबद्धता और निरंतरता से दूसरे सरकारी कर्मचारियों की अंतरात्मा जाग रही है। जो बातें वे प्रेस को भी नहीं बता रहे थे, अब बताने लगे हैं। रेलवे के ट्रैकमैन, ड्राइवर, डाक विभाग, पासपोर्ट आफिस के लोग लिखने लगे हैं। आज ही पासपोर्ट सेवा केंद्र से कुछ सूचनाएं आईं हैं। मैं उन सूचनाओं को आप तक फीडबैक की शक्ल में रख देता हूं। आपकी मर्ज़ी मानें या न मानें।
पूर्वोत्तर से एक ने लिखा है कि बिना किसी सुविधा के पासपोर्ट सुविधा केंद्र खोल दिए जाते हैं। दो कंप्यूटर दे दिया जाता है बस। दफ्तर के इस्तमाल का रोज़ाना सामान हम अपने पैसे से ख़रीद रहे हैं। उनका भुगतान भी नहीं होता। पानी की व्यवस्था तक नहीं है, लोग आते हैं और हमें गाली देकर चले जाते हैं। उन्हें लगता है कि हम चोर हैं। आफिस का पैसा खा गए होंगे।
दिल्ली का मीडिया अजीब अजीब टापिक ले आता है। वो सब ज़रूरी भी होता है, मगर जबसे लाखों की ज़िंदगी में झांककर सरकार का चेहरा देखा है, डर लग गया है। आपको यह ग़ुलामी मुबारक। मैंने बोलने का फ़र्ज़ तो अदा कर दिया। अपने लिए नहीं, आपके लिए। आप करते रहिए कांग्रेस बनाम बीजेपी। यहां आदमी की औकात कीड़े मकोड़े की कर दी गई है और वो भी आपके सहयोग से। मुझे गाली देकर क्या कर लोगो,जितना लिख दिया है वह काफी है सरकार के चेहरे पर बार बार उड़कर पहुंच जाने के लिए। कितने पर्चे फाड़ोगे तुम।