कुल्लू में मनाए जाने वाले दशहरे की अलग ही बात होती है
बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है दशहरा, जिसकी धूम पूरे उत्तर भारत में देखने को मिलती है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में मनाए जाने वाले दशहरे की अलग ही बात होती है। बर्फ से ढ़के पहाड़ और झरनों के अलावा कुल्लू को एक और चीज़ जो खास बनाती है वो है यहां का दशहरा। तो आइए जानते हैं इसके पीछे का इतिहास और दशहरे को मनाने की विशेष परंपरा के बारे में…
पौराणिक कथाओं के अनुसार, 16वीं शताब्दी में कुल्लू पर राजा जगत सिंह का शासन हुआ करता था। राजा को पता चला कि उनके नगर में दुर्गादत्त नामक एक व्यक्ति है जिसके पास कीमती मोती हैं। राजा ने उससे उन मोतियों को देने का आग्रह किया। बदले में उसे हर वो चीज़ देने की बात कही जिसकी उसे जरूरत थी। दुर्गादत्त ने भी राजा का बार-बार समझाया कि उसके पास ऐसे कोई मोती नहीं। अंत में राजा के अत्याचार से परेशान होकर उसने अपने परिवार समेत आत्महत्या कर ली और राजा को श्राप दिया कि वो भी जिंदगी में हमेशा परेशान ही रहेगा। जिसके बाद राजा की हालत खराब होने लगी। मदद के लिए वो एक ब्राह्मण के पास गया। राजा ने उसे बताया कि सिर्फ भगवान राम ही उसके इस कष्ट को दूर कर सकते हैं। जिसके लिए उन्हें अयोध्या से राम की मूर्ति लानी होगी। राजा ने अपने सेवकों को आदेश दिया और वो मूर्ति कुल्लू ले आए। जहां भगवान के चरणअमृत से राजा की जान बची। बाद में मूर्ति को वापस अयोध्या ले जाने लगे तो मूर्ति आगे बढ़ते ही बहुत भारी हो जाती और कुल्लू की तरफ आते ही हल्की। जो आज भी कुल्लू दशहरे का खास आकर्षण होता है।
हिमाचल के कुल्लू में आठ दिनों तक चलने वाला दशहरा इतना खास होता है कि देश-विदेश से लोग इसे देखने आते हैं। दशहरे का पर्व जहां कुल्लू के लोगों के लिए भाईचारे का मिलाप है तो घाटी में रहने वाले लोगों के खेती और बागवानी कार्य समाप्त होने के बाद ग्रामीणों की खरीदारी के लिए भी खास होता है। कुल्लू में रहने वालों के लिए दशहरा का मतलब सिर्फ मेला नहीं बल्कि देव समागम, पुरानी संस्कृति और विविधता में एकता का अध्ययन एवं शोध करने वालों के लिए भी बड़ा अवसर है। शहर का सबसे खास आकर्षण है 17वीं शताब्दी में कुल्लू के राजपरिवार द्वारा देव मिलन से शुरु हुआ महापर्व यानी कुल्लू दशहरा। इस दौरान अंतरराष्ट्रीय लोक उत्सव कुल्लूमेला, नैना देवी में स्थानीय ही नहीं बाहर से आए पर्यटकों की बड़ी तादाद होती है। हजारों की तादाद में लोग नए और रंग-बिरंगे पोशाकों में नजर आते हैं जो दूर से देखने पर बिल्कुल गुलदस्ते के समान लगता है। मेले की शुरूआत में भगवान रघुनाथ की शोभयात्रा निकाली जाती है। जिसका नजारा बहुत ही अद्भुत होता है।