दशहरे के बाद राम , लक्ष्मण , जानकी और हनुमान सहित चित्रकूट की यात्रा फिर राम भरत मिलन और आखरी दिन राम के राज्याभिषेक के साथ हमारी पुरानी बाज़ार कर्वी की रामलीला का समापन होता है । फिर नाटकों का मंचन । लगभग 20 दिनों तक चलने वाला यह समागम शहर में खासी गहमा गहमी छोड़ जाता है । हफ्तों खुमारी छाई रहती है और रामलीला की रस रंगमय यादें पीछा करती रहती हैं ।…चित्रकूट की इस यात्रा की परंपरा अन्य कहीं की रामलीलाओं में नहीं है । कर्वी पास होने की वजह से यह परंपरा पड़ी होगो ।…दशहरे के ठीक दूसरे दिन संध्याकाल में राम , लक्षमण , जानकी और हनुमान के रथ के साथ अपने साधनों वाहनों के साथ शहर के उत्साही लोगों का समूह रामचंद्र के जयघोष के साथ चित्रकूट की ओर चल पड़ता है।
चित्रकूट पहुंचते पहला पड़ाव होता खाकी अखाड़ा यहां के स्वागत सत्कार के बाद मंदाकिनी के तट रामघाट होते हुए पहुंचते कामगिर के मुख्य द्वार टीम जी का रथ यहीं तक आपाता यहीं से कामदगिरि की परिक्रमा शुरू होती है । एक जमाने में प्रेम पुजारी जी यहां के प्रमुख होते थे । भावविभोर कारने वाला दृश्य होता था जैसे साक्षात राम सीता आ गए हों । …अब यहां से आगे की पैदल होती , कुछ दूर चल कर राम , सीता और लक्ष्मण जी को लोग अपने कांधों पर बिठा लेते , ये पात्र कम उम्र यही कोई 8 – 10 साल के होते । जगह जगह साधुओं के आश्रम में स्वागत होता , गीत कवित्त होते , यात्रा आगे बढ़ती जाती ।…सीता राम के उद्घोषों के बीच । ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे तक यात्रा ‘ भारत मिलाप ‘ परिसर पहुच जाती । यहां रात्रि विश्राम सुबह फि आगे बढ़ते । खोही में फिर संगत जमती । मास्टर केदार नाथ कसेरा का कंठ बहुआयामी था , हर राग के अनुरूप वे तुरंत अपने को साथ लेते थे । लीला के दौरान जब ये राम वन गमनके मौके पर भावप्रवण चौपाई …तुरत राम मुनि वेश बनावा …गाते तो गहन संन्नाटे के बीच सिसकियों के अलावा कुछ न सुनाई देता। पात्र और दर्शर्क सभी करुण रस में डूब जाते , ऐसा तब भी होता जब …तारे फीके पैड चुके बीत चली है रात लक्षमण शक्ति के दौरान होता ।
यहां खोही आते ही में इसलिए ठिठक गया किस साल की हमें याद है कि गाते गाते वो ऐसे विभोर हुए कि भावावेश चटाक से जमीन पर गिर पड़े । गजब का गायन था उनका । हर रस में कमाल था ।…हमारे पुरानी बाज़ार की रामलीला अनुष्ठानिक और संवाद प्रधान होती थी । हनुमान जी मंदिर में मुकुट पूजा के साथ रामलीला के सकुशल संम्पन्न होने की जिम्मेदारी उन्हें हो सौपी जाती ।जो पात्र राम ,लक्ष्मण , जानकी , भारत ,शत्रुघ्न आदि बनते उन्हें भर अनुशासन में रखा जाता।पहले तो ये रामलीला भवन में ही रहते थे , रामलीला का आयोजन पूरा होने के बाद ही घर आते थे ।
बाद में जिन दिनों हम इन पात्रों की भूमिका में आये तब यह प्रथा बदली । …सुबह जाते , रोज उबटन लगता , मालिस होती , दूध जलेबी का नाश्ता होता , स्नान भोजन के बाद एक बजे तक घर आते । शाम को चार साढ़े चार बजे फिर जाना होता नाश्ता , रात्रि भोजन , लीला समपन्न के बाद में डेढ़ दो बजे रात तक आते । पूरे 20 दिनों की रामलीला बाद विदाई विदाई होती । फल , फूल , मिष्ठान, मेवा के साथ विदाई होती । जब शत्रुघ्न बने तब 11 रुपये और जब लक्ष्मण बने 31 रूपये नकद भी मिले थे । जब पिताजी परशुराम बने थे तब पंडित राम स्वरूप जी जनक की भूमिका में होते थे ।बाद मे जब हमी परशुराम बनने का मौका तो जनक की बुमिक निभाते थे । यादगार भूमिकाओं में सरजू प्रसाद चौरसिया और तड़का की भूमिका के लिए लोग काशीनाथ दास को नहीं भूल सकते हैं …बुड्ढा बेईमान आया / बालक नादान लाया ।…अजब गजब का गेटअप बनाते थे । इनका सजने का अलग कमरा था , वहां किसी का दखल नहीं । विविध कॉमिक चरित्र निभाये जो लोगों को बरसों याद रहेगें । ….कर्वी का दशहरा आपस में मेल मिलाप का बड़ा अवसर होता है । रिवाज यह था कि इस दिन रावण महाराज को विदा करने के बाद , शहर में राम, लक्षमण , जानकी हनुमान की यात्रा निकलती , हर घर के द्वार पर आरती के साथ स्वाहत होता । फिर लोग अपने घरों में द्वार पर तख्त लगा जाजम कालीन बिछा कर आने वालों का स्वागत सत्कार करते । पान की गिलौरी पेश करने का रिवाज है।
…अब फेसबुक ट्विटर युग में कैसा पान मिष्ठान , वो दौर तो आगया जब आपका बगल वाला घर ही आपको पहचानने से इनकार कर देता है । केवल मदिरा प्रसंग ही बचा है मिलाने मिलाने के लिए। हर खुशी और शोक व्यक्त करने के लिए आभासी दुनिया ही बची है , अब अंतिम विदाई के लिए भी चार कंधे कहां चाहिए । हर चीज हैप्पी हैप्पी है , आपकी बर्थडे भी हैप्पी दशहरा हैप्पी । हैप्पी हैप्पी हो कर आभासी केक खाइये और अपने रुखसत होने ख़बर भी अपनी टाइम लाइन पर छोड़ जाए ।
मेल मिलाप तो अब आउटडेटेड शगल है।…एक समय था जब अपने दोस्तों से मेल मिलाप के लिये मीलों सायकल चला कर आते थे । …दसहरा से दीपावली के बीच तमाम नोकरी पेशा लोग पैतृक शहर आते थे । आपकी सुनते , अपनी बताते , नई पीढ़ी के बच्चों से मिलते , कौन जिया मरा सुध लेते । हमारे के बगल में पंडित का परिवार था । इनके परिवार थे रमेश मिश्र जी ।हम मोहले के लड़कों के चाचा जी , वे आर टी ओ थे ।वे दशहरा में जरूर आने , साते बच्चे उनकी कार की छत पर चढ़े रहते , खूब गिफ्ट लाते सब बच्चों के लिए । एक बार हमारे पिता जी ने उमकी लिखी किताब हमें दी । किताब थी , ‘ मैं कौन हूँ ‘ किताब में हर धर्म मज़हब के हिसाब से मनुष्य के अस्तित्व के बारे में लिखा गया था की आपके जीवन का मूल्य क्या है ।आप हो कौन अपने को पहचानो ।

हमारी मोहल्ला बड़ा आत्मीय और पारिवारिक मिजाज़ का था , सीधे किसी के नाम से वास्ता नही था पर हर कोई किसी न किसी रिश्ते से जुड़ा रहा था । मोहल्ले में हमारी खूब सारी चाचियों थी , सुंदर सौम्य स्नेहिल , उनके प्रखर सौंदर्य के दर्शन के बाद जीवन में उनसे खूबसूरत कोई मिला ही नही । उनके सौन्दय का जो प्रसाद किशोर वय में मिला उसके बाद सौन्दय को ले कर कोई प्रमाद बचा ही नहीं । हमने कभी भी उनका पल्लू सिर हटा नहीं देखा । सीता जी का अवतार थीं सब ।…ये दशहरा दीपावली के त्यौहार पिकनिक टूर के लिये नहीं अपनी जड़ जमीन को जानने अवसर होते थे ।
हमारे घर का मूल पता , गोला बाज़ार , पुरानी बाज़ार का होता था । जहां गुप्ता जी का संम्पन्न परिवार था । हम बच्चे लोग नदी नहाने जाते तो बुजुर्ग गुप्ता जी सारे बच्चों को घेर कर अपनी निगहबानी में रखते , मंजन से चंदन तक मुहैया कराते , ये तेल लगाओ , ये हमारी फार्मेसी का है । गुप्ता की अरविंद फार्मेसी थी , तरह तरह के आर्युवेदिक उत्पाद बनाते थे । खूब चूरन और खट्टी मीठी गोलियां बांटते । नदी में इनका बनवाया पक्का घाट है । मधु निकेतन। यहां काफी दिनों तक सुहृद बाबा रहे । जब सुहृद बाबा शहर मै आये तब से अखंड रामायण पाठ का दौर मुखर हुआ । रामायण पाठ के दौरान उनका प्रिय संम्पूट होता था –सो सुख धाम राम अस नामा / अखिल लोक दायक विश्रामा । सुहृद बाबा लंबे समय तक हमारी कविताओं के सुधारक संशोधक रहे । बहुत शालीन व्यकित्व था । फिर बाद में ये गृहस्थ जीवन में लौट गए । बाद में जब मिले तो हमने पूछा , महाराज ये क्या । बोले , जहां आपकी ज्यादा जरूरत है , अपनी निजी की इच्छाओं को त्याग कर वहां समर्पित होना ही संन्यास है । मन में हलचल , बाबा सचल …यह आडंबर है । किशोर वय में हमे ऐसी संगत मिली जिससे हमारा सोच बना , संस्कार बने कि जमाने का राग रंग भरमा नहीं पाया ।

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