आपदा प्रबंधन: एक उन्नत अन्तरराष्ट्रीय तकनीक

– डॉ. प्रमोद कुमार अग्रवाल

आपदा प्रबंधन (Disaster Management) आकस्मिक विपदाओं से निपटने के लिए संसाधनों का योजनाबद्ध उपयोग और इन विपदाओं से होने वाली हानि को न्यूनतम रखने की तकनीक है। आपदा प्रबंधन की तकनीक विकसित देशों की महत्वपूर्ण प्राथमिकता है पर यह देखा गया कि इन आकस्मिक विपदाओं से विकासशील एवं अविकसित राष्ट्रों को अधिक क्षति पहुँचती है क्योंकि इन विपदाओं का सामना करने के लिए उनके पास आवश्यक संसाधनों का अभाव रहता है।

आज विश्व एक ग्राम हो गया है। इस सूचना प्रौद्योगिकी के युग में कोई देश अपने में ही अकेला पृथक नहीं रह सकता। फिर आज के विश्व में करोना, सुनामी जैसी विपत्तियाँ किसी एक देश की सीमा से न तो उपजती हैं, न ही किसी देश की समीा तक सीमित रहती हैं। इसीलिए इन विपत्तियों के लिए अन्तरराष्ट्रीय सहयोग एवं प्रयासों की अनिवार्यता है। विकसित या विकासशील राष्ट्र के लिए आवश्यक है कि उसकी आधारभूत सेवाएँ, जैसे – स्वास्थ्य, परिवहन, संचार, आवश्यक खाद्य वस्तुओं की उचित आपूर्ति, भूख से मौतों को रोकना, शिक्षा आदि का विश्वसनीय एवं सतत (Sustainable) हों।

आज भी विकास एवं जनकल्याण की अवधारणा राष्ट्र सापेक्ष है एवं प्रत्येक राष्ट्र की जनता सरकार की मुखापेक्षी है क्योंकि राष्ट्रीय सरकार उसके प्रति उत्तरदायी एवं जवाबदेह है तथा वह अपने मत का अधिकार प्रयोग करके सरकार को उसकी अक्षमता, लापरवाही या भ्रष्टाचार के कारण बदल सकती है जबकि अन्तरराष्ट्रीय सहयोग केवल राष्ट्रों की सद्भावना पर पूर्णतः निर्भर है। प्रत्येक देश की सरकार संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न है।

समाचार-पत्रें में प्रायः देश के किसी-न-किसी भाग में बाढ़, सूखा, भूस्खलन, भूकंप, समुद्री तटवर्ती क्षेत्रें में चक्रवात व सुनामी की खबरें रहती है। अगस्त 2015 में हिमाचल प्रदेश के मणिकरन में भूस्खलन, जून 2013 में उत्तराखंड त्रसदी जिसमें केदारनाथ मंदिर का पार्श्ववर्ती क्षेत्र भी बुरी तरह प्रभावित हुआ तथा भारत के पूर्वी तट पर समय-समय पर आए विभिन्न चक्रवात_ जैसे – हुदहुद व फेलिन आदि से तटवर्ती क्षेत्रें में भारी हानि हुई थीा। सन् 2004 में पूर्वी तट पर आई सुनामी की भयावह यादें विशेषतः तमिलनाडु में आज भी मानव-मन में बसी हुईं है जो आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी मनुष्य को वैदिक मानव की भाँति केवल प्रकृति के हाथ जोड़कर उस पर निर्भरशील होने को प्रेरित करती हैं। मैदानी क्षेत्रें में वर्षा ट्टतु में बाढ़ एक समस्या के रूप में प्रतिवर्ष मुँह बाए खड़ी रहती है और विभिन्न वैज्ञानिक एवं मौसम की भविष्यवाणियों को नकारा सिद्ध कर देती है। भारत में इन प्राकृतिक आपदाओं ने तटवर्ती क्षेत्रें के साथ मैदानों के उपजाऊ क्षेत्रें व पहाड़ी क्षेत्रें की संवृद्धि व विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। आपदा प्रायः अनापेक्षित तथा अप्रत्याशित घटना होती है जो मानव के नियंत्रण से परे तथा प्राकृतिक व मानवीय कारकों द्वारा घटित होती है। यह अल्प समय में बिना चेतावनी के प्रायः घटित होती है जिससे मानव के सामान्य व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं और व्यापक तौर पर जन माल की हानि होती है। प्राकृतिक आपदा की गहनता, बारंबारत तथा इसके द्वारा हो रही हानि में निरंतर वृद्धि हो रही है। शायद इसका एक मुख्य कारण मानव द्वारा जलवायु परिवर्तन के घटक हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली क्षति भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जी. डी. पी.) का 2 प्रतिशत और केन्द्र सरकार के राजस्व के 12 प्रतिशत के बराबर है। आपदाएँ प्रगति में बाधा डालती हैं तथा प्रगति की ओर अग्रसर हो रहे राष्ट्रों को कई दशक पीछे धकेल देती हैं। इन आपदाओं से समाज के आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं। संवेदनशील समूहों में वृद्ध व्यक्तियों, महिलाओं, बच्चों, दैनिक मजदूरों, खेतिहर मजदूरों तथा विभिन्न अक्षमताओं के व्यक्तियों को अधिक खतरा रहता है।

भारत के भू-भाग का लगभग 58 प्रतिशत भूकंप की संभावना वाला क्षेत्र है जिसमें भारत का गर्व हिमालय क्षेत्र सुंदर पूर्वोत्तर, गुजरात के कुछ क्षेत्र तथा अंडमान व  निकोबार द्वीप समूह भूकंपीय दृष्टि से सबसे सक्रिय क्षेत्र हैं। देश के 68 प्रतिशत भाग पर कभी-कभी भीषण सूखा पड़ता है। भारत के पश्चिमी और प्रायद्वीपीय राज्यों के मुख्यतः भाग शुष्क से प्रभावित रहते हैं। बाढ़ से प्रभावित भूमि का विस्तार देश में 7 करोड़ हेक्टेयर (12%) है। ऐसे परिदृश्य में भारत में बेहतर आपदा प्रबंधन अत्यंत आवश्यक है क्योंकि किसी व्यक्ति या किसी देश की सरकार का इन पर नियंत्रण नहीं होता है। हाल ही में कोविद-19 विषाणु से प्रभावित अधिकांशतः वे ही देश एवं सरकारें हुई जो विश्व में सर्वाधिक समृद्ध एवं शक्तिशाली हैं जैसे – चीन, अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, स्पेन आदि। ‘इन्टरनेशनल फेडरेशन ऑफ रेडक्रॉस एंड रेड क्रेसेंट सोसाइटी’ द्वारा 2010 में प्रकाशित विश्व आपदा रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2009 के बीच आपदा से प्रभावित होने वाली जनता में 85 प्रतिशत एशिया-प्रशांत क्षेत्र के थे। आपदाओं का आकलन करने वाली अंतर्राष्ट्रीय डाटाबेस संस्था ‘सेंटर फॉर द रिसर्च ऑन एपिडेमियोलॉजी ऑफ डिजास्टर’ का आकलन है कि भारत में सबसे अधिक हानि बाढ़, भूकंप व सूखा आपदाओं से हुई।

भारत में आपदा प्रबंधन के लिए सन् 1990 में कृषि मंत्रलय, भारत सरकार ने डिजास्टर मैनेजमेंट सेल स्थापित किया। लातूर के भूकंप (1993), उड़ीसा (ओडिशा) के सुपर साइक्लोन (1999) व भुज के भूकंप (2001) के बाद देश में एक आपदा प्रबंधन के लिये एक पृथव्फ़ व्यवस्था की जरुरत को महसूस करते हुए के-सी- पन्त की अध्यक्षता में उच्च क्षमताशील समिति ने अपनी रिपोर्ट में व्यापक एवं व्यवस्थित निर्देशों को जारी किया गया। सन् 2002 में आपदा को देश की आतंरिक सुरक्षा का विषय मानते हुए गृह मंत्रलय के अंतर्गत लाया गया ताकि गृह मंत्रलय आपदा के समय सबसे अधिक उपयोगी सैन्य वाहिनी, वायुसेना, नौसेना, पुलिस, अर्द्ध सैनिक वाहिनियाँ, राज्य-सरकारें जिला प्रशासन आदि के मध्य प्रभावकारी सामंजस्य किया जा सके। भारत के आपदा प्रबंधन के इतिहास में एक बड़ा परिवर्तन 2005 में हुआ, जब डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट, 2005 भारत में अधिनियम बना जिसके तहत भारत में सरकार ने अपनी समग्र कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया जिसमें आपदा आने के बाद तथा घोषित होने के बाद इससे बचाव, नुकसान की भरपाई, निदान, फिर आपदा पूर्व की तैयारी सन्निहित हैं। आपदाओं के खतरे का स्तर सभी लोगों के लिए एक जैसा होता है, किन्तु समाज के विभिन्न वर्गों में खतरों से निपटने तथा उसके बाहर आने की क्षमता अलग-अलग होती है। गरीब व वंचित वर्ग तथा आम लोग प्रकृति के प्रकोप से अधिक प्रभावित होते हैं। इसीलिए गरीबी शमन योजना एवं कार्यक्रमों में आपदाओं के जोखिम को कम करने वाले उपायों में शामिल किया जाना चाहिए। यह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ की भी कार्यविधि का भी भाग है। आपातकालीन प्रबंधन में शमन, तैयारी, प्रतिक्रिया तथा पुनर्प्राप्ति का उपयोग किया जाता है। आपदा के प्रभावों तथा सुभेद्यता को कम करने वाली गतिविधियों को शमन कहते हैं। आपदा पहचान और उसकी सुभेद्यता का विश्लेषण अन्य चरणों की योजना बनाने में सहायक होता है। किसी भी आपातकाल के लिए तैयारी बहुत आवश्यक है। यह आपातकालीन प्रतिक्रिया करने का व्यवस्थित तरीका प्रदान करती है। आपदा में प्रतिक्रिया के पाँच आधारभूत चरण यथा – चेतावनी, तात्कालिक लोक सुरक्षा, संपदा सुरक्षा, लोक कल्याण तथा पुनर्भंडार द्वारा जीवन के लिए आवश्यक सेवाओं की व्यवस्था करना है तथा व्यवस्था को सामान्य करने तक पुनः प्राप्ति की प्रक्रिया चलती रहती है।

वर्ष 2020 के प्रारम्भ में यह अनुभव किया गया कि नोवेल करोना वायरस से उत्पन्न विश्व-महामारी का सामना करने के लिए महामारी नियंत्रण अधिनियम, 1897 प्रभावी नहीं हो

सका क्योंकि उसमें उचित दंड का प्रावधान केवल धारा 188 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत था जो धारा 144 आपराधिक प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के उल्लघंन पर भी होता है। जनता इसे कफ्रर्यू के नाम से कहती है तथा इसमें पाँच या इससे अधिक लोगों का एक साथ इकट्ठे होने का निषेध है। पर करोना महामारी ने इस अधिनियम में कई कमियाँ उजागर की जो केवल आपदा प्रबधंन अधिनियम, 2005 के अंतर्गत ही दूर की जा सकती हैं। दूसरी ओर इस महामारी में आपदा महामारी अधिनियम, 2005 केवल एक दंगात्मक अधिनियम होकर ही नहीं उभरा बल्कि यह जमीन पर प्रशासनिक दायित्व का निर्वाह करने वाले अधिकारियों, कर्मचारियों तथा अन्य सम्बधित व्यक्तियों के लिये मित्र, दार्शनिक एवं मार्गदर्शक के रूप में भी काम करता है। पर इसके साथ-साथ अन्तरराष्ट्रीय सहयोग के बिना आपदा प्रबंधन अपूर्ण ही रहेगा।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के अनुसार आकस्मिक विपदाओं के कारण प्रति वर्ष विश्व में प्रायः 22 लाख करोड़ रुपए की क्षति होती है तथा सन् 2005 से 2017 तक प्रायः 150 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं। यदि इसमें जलवायु परिवर्तन के कारण क्षति को जोड़ लिया जाय तो क्षति काफी अधिक होगी। इसलिए आपदा प्रबंधन के द्वारा आपदा के द्वारा हुई क्षति को रोकना आवश्यक था ताकि वर्ष 2030 तक स्थायी विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। इस समय तक कोविद-19 विषाणु द्वारा वर्ष 2020 के प्रारम्भ में विश्वभर में आपदा का उदय नहीं हुआ था और न किसी ने इसकी कल्पना तक की थी। ऐसी विपत्ति की रोकथाम का एक मात्र उपाय है – आपदा प्रबंधन का पूर्ण राजनैतिक एवं प्रशासनिक इच्छाशक्ति से द्वारा कार्यान्वयन करना।

कोविद-19 महामारी

नये वर्ष 2020 के प्रारंभ में करोना या कोविद-19 विषाणु चीन के वुहान महानगर तथा हुबई प्रांत में फूटा और शनैः शनैः उसने समस्त विश्व को अपने आगोश में ले लिया। मई के प्रथम सप्ताह तक प्रायः दो सौ देशों की तीस लाख से अधिक जनसंख्या इससे प्रभावित हो चुकी थी तथा इससे 2 लाख लोग मारे जा चुके थे जिनमें मुख्यतः यूरोप एवं अमेरिका से थे जिन्होंने मृत संख्या में चीन को पीछे छोड़ दिया। भारत में मई के प्रथम सप्ताह तक प्रायः 40 हजार लोग कोविद-19 से संक्रमति थे तथा प्रायः एक हजार लोग मारे चुके थे। अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि करोना तथा कोविद-19 का कहर जारी है। विश्व की विकसित वैज्ञानिक एंव स्वास्थ्य-व्यवस्था ने उसके सामने घुटने टेक दिये हैं। भारत सहित सभी देशों ने इस रोगजनक सूक्ष्म विषाक्त जीवाणु को नियंत्रित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सुझाये गये मॉडल को अपनाना है जो प्रत्येक देश की परिस्थिति एवं प्रशासनिक व्यवस्था के अनुसार भिन्न हो सकता है।

सेन्डाई अन्तरराष्ट्रीय प्रारूप

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सुझाया गया सेन्डाई मॉडल के अनुसार इस प्रकार की आपदा के लिए सभी राष्ट्रों को परस्पर मिलकर, आपसी सहयोग एवं एकजुट होकर आपदा प्रबंधन के लिए अधिकतम प्रयास करना चाहिए ताकि संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में विश्व के संसाधनों का उचित उपयोग किया जा सके। सन् 2015 के पश्चात् इस ओर सम्यव्फ़ प्रगति भी हुई है तथा संशोधित संयुक्त राष्ट्र की कार्य योजना के मुख्य बिन्दु निम्न हैं –

                ऽ             पूरे विश्व में आपदा खतरे को कम करने के प्रयासों को जलवायु परिवर्तन के साथ संयुक्त करना,

                ऽ             संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यों में आपदा खतरा न्यूनीकरण एवं जलवायु परिवर्तन की संयुक्त प्रगति की निगरानी,

                ऽ             सिन्डाई सुझाओं में एक मुख्य सुझाव यह भी था – सब समय बिना विलंब के देशों में परस्पर आपदा सम्बन्धित खतरों की सूचनाओं का आदान-प्रदान हो। यदि यह ही होता तो करोना विषाणु से उत्पन्न विषम वैश्विक परिस्थिति को कुछ कम किया जा सकता था पर यह अन्तरराष्ट्रीय सलाहनामा सर्वप्रभुता संपन्न देशों पर बाध्यकारी नहीं हैं। फलतः राष्ट्राध्यक्ष अपने राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में तथा राजनीतिक हितों के परिप्रेक्ष्य में प्राथमिकता तय करते हैं। वे पड़ोसी देशों अथवा विश्व समुदाय के हितों की बाद में चिंता करते हैं। करोना ने विश्व की यह राष्ट्रवादी सोच पर कठोर प्रहार किया है। फिर भी क्या वैश्वीकरण के बावजूद भी राष्ट्रों की राष्ट्र केन्द्रित विचारधारा में परिवर्तन आयेगा ?

अतः सिन्डाई के आपदा प्रबंधन के प्रारूप को सर्वप्रथम देश बाध्यकारी रूप से ग्रहण करें, संयुक्त राष्ट्र के उपर्युक्त प्रारूप को शक्तिशाली बनायें ताकि एक संगठित एवं उच्च गुणवतापूर्ण ढंग से आपदा के खतरों को कम किया जायें तथा संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न संस्थाएँ एवं अंग आपदा खतरे के न्यूनीकरण को अपनी प्राथमिक रणनीति में रखें। संयुक्त राष्ट्र की संस्था या समूह को यह अधिकार रहे कि वे राष्ट्र के तथा स्थानीय निवासियों को खतरे के विषय में अविलंब चेतावनी देने, उससे निबटने के कार्यान्वयन तथा सामान्य होने में सहायता कर सकें। अतः संयुक्त राष्ट्र की सभी संस्थाओं की मुख्य रणनीति में आपदा के खतरों का न्यूनीकरण कार्य सम्मिलित हो। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र के सभी संगठन तथा संस्थाएँ अपनी निगमत नीति में शामिल करें। संयुक्त राष्ट्र के सभी संगठन इसके लिए अपने संसाधनों में वृद्धि करें। संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा देशों को आपदा सम्बन्धी खतरों को कम करने के लिय तकनीकी उपलब्ध करायी जाये।

कार्यान्वयन रणनीति

सेन्डाई के सुझावों के कार्यान्वयन के लिये निम्न पदक्षेप लिये जाने चाहिए –

                (1)          संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव का एक विशेष प्रतिनिधि आपदा के जोखिम को कम करने के लिए विशेषतः नियुक्त हो।

                (2)          संयुक्त राष्ट्र की ओर से आपदा जोखिम को न्यूनीकरण हेतु एक ज्येष्ठ स्तर का तकनीकी समूह बने।

                (3)          संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में आपदा खतरे के न्यूनीकरण सम्बन्धित प्रयासों की उचित निगरानी के साथ-साथ उनकी वार्षिक, द्विवार्षिक एवं चतुर्थ वर्षीय रिपोर्टे तैयार हों जो विश्व के सभी देशों को प्रेषित हों तथा उनकी उचित समीक्षा हो एवं भविष्य की रणनीति में अच्छे परिणामों एवं सावधानियों को सम्मिलित किया जाय।

                (4)          संयुक्त राष्ट्र की सभी संस्थाएँ आपदा सम्बन्धी रणनीति का व्यापक प्रचार-प्रसार करें तथा सरकारी, गैर-सरकारी एवं अर्धसरकारी संस्थाओं के साथ साझीदार हों। सेन्डाई के सुझाव सार्वभौमिक एवं सार्वकालीन हैं। यदि इस प्रकार के अन्तरराष्ट्रीय प्रारूप को पूर्व में स्वीकार कर लिया जाता तो वर्तमान में कोविद-19 विषाणु द्वारा विश्व की अर्थव्यवस्था को कई वर्ष पीछे ढकेलने का जो दुष्कर्म हो गया हैं, वह घटित न होता तथा 2030 तक विश्व विकास के लक्षित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफलता के आसपास होता। पर यदि चीन में स्थित विश्व स्वास्थ्य संगठन यह सूचना एक सप्ताह बाद देती तो विश्व में चार-पाँच गुना क्षति हो जाती। विश्व के सामने अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि 2030 के विकास लक्ष्य बहुत दूर हैं। यदि कोविद-19 जैसे विषाणु जैसा यदि एक और झटका विश्व-समुदाय को लग जाय, तो विश्व को फिर से अपने विकास का पथ चुनना होगा जिसमें आपदा प्रबंधन को भी प्राथमिकता रहेगी। आशा है कि राष्ट्र संघ की सभी संस्थाएँ, भारत सहित सभी देश, सरकारी, अर्धसरकारी, गैर-सरकारी, विश्व संस्थाएँ सामूहिक प्रयास करके फिर से विश्व-मानवता को विकास के पथ पर आरूढ़ करेंगी तथा मनुष्य की अपराजेय संघर्ष गाथा को साकार करेंगी जो मनुष्य के अनंत सामर्थ्य, शक्ति तथा कर्मठता पर आधारित है।

भारत के संदर्भ में सुझाव

सेन्डाई प्रारूप तथा हाल ही में करोना महामारी को दृष्टिगत रखते हुए भारत में बेहतर आपदा प्रबंधन के लिय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम की संस्थागत कमियों को उचित निर्णय प्रक्रिया के द्वारा दूर किये जाने की आवश्यकता है। साथ ही, राष्ट्रीय स्तर से लेकर प्रांतीय स्तर तक तथा जिला स्तर से लेकर स्थानीय नगरपालिका तथा ग्राम पंचायत स्तर तक संपूूर्ण रूप से बेहतर समन्वय एवं सूचना-तंत्र विकसित किए जाने की आवश्यकता है, जिससे आपदा के समय त्वरित कार्यवाही की जा सके। आपदाओं से प्रभावी तरीके से निपटने के लिए आपदा प्रभावित जोखिम आकलन व संभावनाओं का विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। इसके अंतर्गत प्रमुख संवदेनशील क्षेत्रें की पहचान, अतीत में घटित प्राकृतिक आपदाओं के बारे में सूचना संग्रह, जनसंख्या तथा बुनियादी ढाँचा के संबंध में सूचना संकलित करना है। आपदाआें पर निगरानी रखने, पूर्वानुमान और चेतावनी की गुणवता में सुधार लाने, चेतावनी की प्रणालियों द्वारा तेजी से सूचनाओं के प्रसार में दूर संवेदी उपग्रह संचार का समुचित उपयोग, आई-आर-एन-एस-एस- मौसम आधारित उपग्रह ओशन सेट, जी-पी-एस- जैसी अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। राष्ट्रीय भवन निर्माण संहिता, 2005 के अनुसार भवन निर्माण की मंजूरी तथा स्थानीय स्तर पर आपदाओं के शमन, निवारण और तैयारियों के लिए लोगों का प्रशिक्षण, जन-जागरूकता और आपदा प्रबंधन में शिक्षा और अनुसंधान की सुविधाएँ होना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त आपदा प्रभाविताें को राहत पहुँचाने, अनावश्यक विलंब से बचने तथा प्रशासनिक व्यवस्था की कार्यकुशलता तथा प्रभावकारिता सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है। इसके लिए नगरपालिका तथा पंचायत स्तरों पर आपदा प्रबंधन की उचित व्यवस्था करनी होगी।

प्रसन्नता की बात है कि आपदा प्रबंधन में संलग्न हजारों-लाखों अवैतनिक कार्यकर्ताओं तथा सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए केन्द्र सरकार ने सुभाष चन्द्र बोस आपदा प्रबंधन पुरस्कार की घोषणा की है। इस पुरस्कार के द्वारा व्यक्तियों, संगठनों तथा संस्थानों को पुरस्कृत किया जायेगा जिन्होंने आपदा के दौरान अपने कर्तव्य के ऊपर जाकर लोगों की सहायता की है।

आशा है कि इस प्रकार के प्रयासों से भारत में उन्नत अन्तरराष्ट्रीय स्तर का आपदा प्रबंधन तंत्र सतत तैयारी की अवस्था में रहेगा तथा आपदा में फँसे लोगों की जानमाल की संरक्षा करेगा।

संपर्क: (ई-मेल) pk_usha@rediffmail.com

(मो.): 9650002565

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