अनुपम जिन पर सादगी फिदा हुई / कुमार प्रशांत

कुमार प्रशांत

 

अनुपम का लेखन और उनकी पत्रकारिता भी इसी सादगी में से निकली थी और इसलिये अनुपम थी। अगर साधनों की विपुलता से परिणाम को नहीं नापा जाना चाहिए तो भाषा-विन्यास और शब्द-जाल से लेखन की सार्थकता क्यों और कैसे मापी जा सकती है! वो तवा घाटी का मिट्टी बचाओ हो कि चम्बल में डाकुओं का समर्पण हो कि पहाड़ों में चला चिपको आन्दोलन हो कि बड़े बाँधों की विनाशलीला कि राजस्थान के जल संकट में उतरना कि देश भर के तालाबों का अध्ययन अनुपम ने पत्रकारिता और भाषा का नया स्वरूप उभार दिया।

अनुपम अपने उस पर्यावरण में जा मिले जिससे स्वयं एकाकार होने और सबको एकाकार करने की प्रार्थना में उनका जीवन 5 जून, 1948 से चला और 19 दिसम्बर, 2016 को रुका! सफर शुरू हुआ था महात्मा गाँधी के वर्धा में और अन्त हुआ महात्मा गाँधी के राजघाट पर। पिता कवि थे-अनुपम कवि थे। अज्ञेय जी ने अपनी सप्तक शृंखला में जब उन्हें शामिल किया तब से नहीं, उससे काफी पहले से भवानी (प्रसाद मिश्र) बाबू कविता के साथ जीते थे और उससे ही पहचाने जाते थे।

आपातकाल में वे कवियों में अकेले थे जिनने तानाशाही को त्रिकाल-संध्या का व्रत लेकर चुनौती दी थी-तीनों काल तीन कविताएँ लिखकर आपातकाल को चुनौती देने का संकल्प! बीच के सालों में बहुत कुछ किया भवानी बाबू ने लेकिन गाँधी की तरफ पीठ नहीं की। सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय की हिन्दी परियोजना का सम्पादन, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की पत्रिका ‘गाँधी मार्ग’ का सम्पादन फिर सर्वोदय आन्दोलन की पत्रिका के सम्पादक रहे भवानी बाबू, जिसके सम्पादक कभी विनोबा और दादा धर्माधिकारी आदि भी रहे थे। पिता का इतना परिचय जरूरी इसलिये है कि समझ सकें कि अनुपम कहाँ से चले थे, कहाँ से रस पाते थे और उनका कम्पास इतना मजबूत कैसे था!

अनुपम की चुटिया गाँधी से कब और कैसे बँधी, इसके पीछे कोई नाटकीय घटना नहीं थी। वे काम करते-करते, सोचते-चलते गाँधी तक पहुँचे थे। लोहिया, समाजवादी युवजन सभा आदि का बहुत छोटा दौर भी साथ रहा, लेकिन वह पानी की गहराई नापने से अधिक नहीं था। अनुपम की कई विशेषताओं में से एक विशेषता यह भी थी कि वे सबके साथ थे, लेकिन पहले और आखिरी तौर पर वे गाँधी के थे; और गाँधी की समझ भी उनकी अपनी थी। गाँधी को खूब-खूब पढ़ना और गाँधी को समझना दो एकदम भिन्न बातें हैं।

यह तो हो सकता है कि पढ़-पढ़ कर गाँधी को समझा जाये, लेकिन यह नहीं हो सकता है कि जिये बिना गाँधी को समझा जाये। यह अक्सर नकली व्यक्ति गढ़ता है, या नकली गाँधी तक पहुँचता है। गाँधी को जीने का मतलब गाँधी के जड़ हो चुके प्रतीकों की नकल करना या उनसे चिपकना नहीं है। अनुपम ने यह रहस्य समझा था। इसलिये वे एक सामान्य मनुष्य की तरह जीते थे, लेकिन इतनी सरलता और सहजता से कि कुछ भी बनावटी या आरोपित नहीं होता था।

वे साहित्य भी पढ़ते थे, फिल्में भी देखते थे, फोटोग्राफी की और यात्राएँ भी, पत्रकारिता भी और किताबें भी लिखीं। खाने-पीने का आनन्द लेना व देना भी खूब जानते थे। नए लोगों से सहजता से मिलना-बातें करना और उन पर हावी हुए बिना उन्हें अपने साथ लेना उनकी प्रयासहीन वृत्ति थी। एक थे बनवारी लाल चौधरी। कृषि-विज्ञानी। सरकारी नौकरी में थे। गाँधी ने आजादी की लड़ाई में जब सबको पुकारा तो कई-कई लोगों ने जवाब दिया।

बनवारी लाल भी तब नौकरी छोड़कर गाँधी के साथ खड़े हो गए और फिर खड़े ही रहे। ग्रामीण भारत को ध्यान में रखकर जिन लोगों ने आधारभूत रचनात्मक कार्य की दिशा खोजी, उनमें बनवारी लाल का नाम भुलाया नहीं जा सकता। पिता भवानी बाबू ने, संस्कृत में एम.ए. कर अपनी जमीन तलाशते अनुपम को इन्हीं बनवारी लाल की तरफ उन्मुख किया और हम सबके जीवन में एक वह काल जो आता है, जब हम अपनी दिशा तय करते हैं, अनुपम ने वह काल बनवारी लाल के निटाया केन्द्र पर जिया।

अब न बनवारी लाल रहे, न रहे अनुपम, लेकिन रह गया बनवारी लाल का दिया वह सरल साधारण-सा सूत्र कि साधनों की कमी या विपुलता से परिणाम की गहराई या सफलता नहीं मापी जा सकती है। और फिर गाँधी ने तो पूछा ही न कि साधनों की किल्लत हो जहाँ वहाँ आप विवेक कैसे खो सकते हैं? और फिर कहा : गरीबी हरगिज नहीं चाहिए, क्योंकि वह मनुष्य का सर्वाधिक अपमान करती है। चाहिए स्वेच्छा से स्वीकारी हुई गरीबी! यह स्वेच्छा अनुपम का स्वभाव बन गई। इसलिये उन पर सादगी सजती थी।

उनका लेखन और उनकी पत्रकारिता भी इसी सादगी में से निकली थी और इसलिये अनुपम थी। अगर साधनों की विपुलता से परिणाम को नहीं नापा जाना चाहिए तो भाषा-विन्यास और शब्द-जाल से लेखन की सार्थकता क्यों और कैसे मापी जा सकती है! वो तवा घाटी का मिट्टी बचाओ हो कि चम्बल में डाकुओं का समर्पण हो कि पहाड़ों में चला चिपको आन्दोलन हो कि बड़े बाँधों की विनाशलीला कि राजस्थान के जल संकट में उतरना कि देश भर के तालाबों का अध्ययन अनुपम ने पत्रकारिता और भाषा का नया स्वरूप उभार दिया।

गाँधी ने तो पूछा ही न कि साधनों की किल्लत हो जहाँ वहाँ आप विवेक कैसे खो सकते हैं? और फिर कहाः गरीबी हरगिज नहीं चाहिए, क्योंकि वह मनुष्य का सर्वाधिक अपमान करती है। चाहिए स्वेच्छा से स्वीकारी हुई गरीबी! यह स्वेच्छा अनुपम मिश्र का स्वभाव बन गई। इसलिये उन पर सादगी सजती थी। उनका लेखन और उनकी पत्रकारिता भी इसी सादगी में से निकली थी और इसलिये अनुपम थी।

भाषा का यह सहज सौन्दर्य उनके व्याख्यानों में भी अनुपम स्वरूप में उभरता है, जिन्हें बहुत-बहुत आग्रह के बाद, लगभग जबरन स्वीकारते हुए वे कहते ही थे कि मुझे बोलना तो आता भी नहीं है। अपनी यह भाषा उन्होंने लोगों के बीच रहकर सीखी व पहचानी थी। वे मौका-ए-वारदात पर जाकर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों में नहीं थे। वे जिन-जिन कामों से जुड़े, उन-उन के साथ जाकर लम्बे-लम्बे अरसे रहे और फिर लिखा। इसलिये उनकी भाषा में निरन्तर परिष्कार देखा जा सकता है सहज से सहजतर की तरफ; सरल से सरलतर की तरफ! वे हमारे दौर के उन थोड़े से शब्द शिल्पियों में थे, जिनके लिखने-बोलने के बीच खाई कम-से-कम थी।

पर्यावरण की चिन्ता में उन्होंने कभी युद्ध घोषित नहीं किये। हालांकि पर्यावरण के प्रति जागरूकता बनाने और उसे जमीन पर उतारने का उनका काम किसी से भी, किसी माने में कमतर या कमजोर नहीं था। आज इतने अधिक लोग, इतनी आक्रामकता से पर्यावरण की रक्षा करने में जुटे हैं कि उनसे ही पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है।

अनुपम इस भीड़ से एकदम अलग और अपने काम में मन भर डूबे, तन्मय नजर आते थे, तो इसलिये कि वे पर्यावरण के विनाश को मनुष्य से अलग करके नहीं देखते थे और उनके सहजीवन में ही उसकी सार्थकता देखते थे। ‘भारत का पर्यावरण’ पर छपी पहली वार्षिकी थी तो अनुवाद-सी ही, लेकिन उसने अनुपम की मौलिकता का पहला प्रमाण दिया था। फिर ‘राजस्थान की रजत बूँदें’, फिर ‘आज भी खरे हैं तालाब’ ने एक के बाद एक हमें अचम्भित भी किया और मोहित भी! इन किताबों के इर्द-गिर्द जैसा लोक जागरण हुआ, हजारों की संख्या में नए-पुराने तालाब तैयार हो गए, वैसा किताबों से सम्भव हो सकता है, यह सत्य के पुनराविष्कार सरीखा था।

कितनी ही भाषाओं में, कितने ही संस्करण इसके प्रकाशित हुए, व्यावसायिक प्रकाशकों ने मनमानी कीमत पर, मनमाने प्रकाशन किये, कितने अलग-अलग माध्यमों से काम करने वालों ने इन किताबों की मदद ली, जानना-गिनना सम्भव नहीं है। अनुपम ने किताबों के शुरू में ही लिखा था : इसे या इसके किसी अंश को प्रकाशित करने के लिये अनुमति की जरूरत नहीं है। सबके लिये खुला है मन्दिर ये हमारा! इन किताबों से उन्होंने एक पैसे की कमाई नहीं की। कभी कुछ कमाई हुई तो जिस गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के साथ जुड़कर वे काम करते रहे, उसे भेंट कर दी।

कोई 10 माह पहले अचानक ही कैंसर का पता चला। फिर तो अस्पताल, डॉक्टर, दवाएँ, कीमो, न्यूक्लीयर मेडिसिन आदि-आदि के चक्र से घिर गए। जैसा कहते हैं-कैंसर से लड़ाई जारी है, मैंने कहा, तो पतली-सी मुस्कान उभरी : ‘काहे की लड़ाई, मैं तो इससे दोस्ती साधने में लगा हूँ! लड़ते तो उससे हैं, जिससे जीतने की कोई सम्भावना हो। इस राजरोग से तो कुछ हो सकती है तो दोस्ती ही हो सकती है।’ दोस्ती ही बनी होगी शायद जो यह राजरोग उन्हें अपने साथ ले गया।

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