शायद आखिरी गेंद तक खेलता रह जाऊं : रवीश कुमार

न्यूज़ गेटवे / रवीश कुमार / नई दिल्ली / 

मेरे भीतर का टीवी धीरे धीरे कम होता जा रहा है। मेरे भीतर एक शाम धीरे धीरे आ रही है। महसूस होने लगता है कि मेरे भीतर का बल्लेबाज़ हेलमेट उतारकर पवेलियन लौटना चाहता है।

एक जुनून सा धंसा हुआ सीने में। क्रीज़ पर डटे रहने की। खिलाड़ी को अपनी शाम देख लेनी चाहिए। जवानी को सुबह का अंदाज़ा हो जाना चाहिए। सब कुछ ख़्वाब तो नहीं है। ख़्वाब की तरह कौन जी सका है इस दयार में। पर जब भी मंच देखता हूं लगता है मेरे भीतर किसी का किरदार वहां ले जाना चाहता है।

मैं आप सभी की दी हुई बधाइयां लौटाना चाहता हूं, सारा प्यार किसी गिफ्ट रैप में लपेट कर आपके घर छोड़ आना चाहता हूं। यह एक सपना है जो सोते जागते आंखों के सामने घूमता रहता है। रसद का इंतज़ाम हो तो पवेलियन लौटने की तारीख़ का इंतज़ाम कर देना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो भीतर भीतर उस टूटन को लेकर जीना पड़ेगा।

अपने भीतर ही बिखर कर जीना अच्छा नहीं होता। मैं क्यों कह जाता हूं कि अगर मैं एंकरिंग करता रहा तो…पता नहीं। किसी ने पूछा ऐसा क्यों कहते हैं। मालूम नहीं। मेरी पंक्तियां किसी चित्रकार के स्ट्रोक की तरह रनडाउन में छितराई रहती हैं।

काश हम रईस होते तो आज ही….इस टीवी में होने के लिए जानवर होना ही शर्त है। दूसरों को ग़ुलाम देखकर भी तक़लीफ़ होती है। लेकिन ग़ुलामों को आज़ाद कराने के लिए शायद आखिरी गेंद तक खेलता रह जाऊं।

फेसबुक : रवीश कुमार की वाल से 

You may have missed

Subscribe To Our Newsletter