लोक कवि केदार की कविता मनोभूमि / अजित पुष्कल

जन्म जयंती पर विशेष / -अजित पुष्कल


केदार की कविता में जिस तरह के बाँदा के प्राकृतिक स्थल और वहाँ की शोषित जनता के चित्र उभरते हैं, तो ‘मेघदूत‘ का परिदृश्य उभर आता है। विंध्य पर्वत के ढलान पर बहती नर्मदा, विदिशा के निचले पर्वत, उज्जैनी के महल, सरकंडों के वन, बजते हुए सूखे बांस उदयन की कथा सुनाते वृद्ध और शिप्रा नदी। उसी तरह केदार की कविता में केन, टुनटुनियाँ पहाड़, गर्री नाला, चन्द्र गहना बाग, चित्रकूट की वनस्थली, टेसू के जंगल और धान के खेत, गाँव का पहाड़, फसल काटते किसान और सड़क पर नारी वेष में नृत्य करता नर्तक दिखाई पड़ता है।

लोक लीला,प्रेरणा  देती मुझे

मैं लोक लीला लिख रहा हूँ

काव्य की अभिव्यक्तियों में

जा रहा हूँ।

-केदार

मैं जब भी केदार की कविताओं से गुजरता हूँ, तो जिस लोक का बोध जगता है, वह बाँदा ही होता है। मैं बाँदा का हूँ। छात्र जीवन से ही कवि केदार के संसर्ग में रहा। मेरी जानकारियाँ किताबी नहीं, अनुभवजन्य हैं। अतः भाषाबद्ध करिव मैं सोई। मोरे मन प्रबोध जेहि होई। केदार जी को बाँदा  से बेहद लगाव था। वृद्धावस्था में जब वह अपने पुत्र अशोक के पास मद्रास गये, तो वहां बाँदा  के किसी स्वजन का पत्र मिला, बाँदा में पानी नहीं बरस रहा, तो कवि का मन बाँदा की जनता के लिए बिह्वल हो उठा। बुंदेलखण्ड में जब अकाल पड़ता है, तो वहाँ के किसानों पर कहर ढ़ा जाता है। वे त्रस्त हो जाते है। अकाल काल के लिए वे ‘कहर साल’ शब्द का प्रयोग करते हंै, जो उनकी पीड़ा का बयान करता है। मद्रास में कवि किसानों की पीड़ा संवेदनशील ढंग से आत्मसात् कर लिखता है-


उन्हें चाहिए पानी

पानी-पानी की बरसात

मैं घबराया-रोया रोते-रोते धीरज खोया

मेघराज के लिए संदेशा मैंने भेजा

जाओ बरसो, वहाँ झमाझम

पानीकर दो बाँदा  पानी पानी।


अपने लोक को लेकर कवि की सृजनशीलता सामाजिक अस्मिता एवं इतिहास बोध से संपृक्त है।


केदार की कविता में जिस तरह के बाँदा के प्राकृतिक स्थल और वहाँ की शोषित जनता के चित्र उभरते हैं, तो ‘मेघदूत‘ का परिदृश्य उभर आता है। विंध्य पर्वत के ढलान पर बहती नर्मदा, विदिशा के निचले पर्वत, उज्जैनी के महल, सरकंडों के वन, बजते हुए सूखे बांस उदयन की कथा सुनाते वृद्ध और शिप्रा नदी। उसी तरह केदार की कविता में केन, टुनटुनियाँ पहाड़, गर्री नाला, चन्द्र गहना बाग, चित्रकूट की वनस्थली, टेसू के जंगल और धान के खेत, गाँव का पहाड़, फसल काटते किसान और सड़क पर नारी वेष में नृत्य करता नर्तक दिखाई पड़ता है। कालिदास और मैं उनका छोटा सा निबंध है, जिसमें वे कहते हैं- कालिदास की कविता पढ़ते-पढ़ते मैं उनके छन्दों के स्वरों-यानी उनकी आवाज को सुनता चलता हूँ और सुनते-सुनते मुग्ध होने लगता हूँ…… निश्चय ही उनके छन्द प्रबल इंद्रिय बोध के छन्द हैं। वे सब संगाठित सौन्दर्य की अखण्डित मूर्तियाँ हैं। सोमदत्त से एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा है उन्होंने प्रकृति का वर्णन किया, इसलिए मुझे राष्ट्रीय कवि लगते हैं। इतना ही नहीं एक गीत में कवि ने कालिदास के प्रकृति-क्षेत्र मालवा को स्मरण करते हुए लिखा है-


मालवा में गीत मेरे गूँज जाँयें

मैं यहाँ पर बीज बोऊँ

वह वहाँ पर जन्म पाँयें

मालवा की गोद में फल-फूल लायें।


एक लोक को दूसरे लोक से जोड़ने और सांस्कृतिक विस्तार करने में प्रकृति की अहं भूमिका होती है क्या ? प्रकृति चित्रण के पीछे कवि केदार की यही मंशा तो नहीं है ? मनन का विषय है। बाँदा  की प्रकृति और मालवा की प्रकृति में प्रकृति में साम्य है क्या ?


केदार के भाव लोक को समझने में उनकी कविता मेरे अन्दर मुझे बहुत मदद करती है। फिलहाल मैं उसके दो बिंब ही पकड़कर अपने बोध को स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ। पहला बिम्ब है नदी का –


मेरे अंदर है एक नदी

नगर से मुहब्बत करने वाली

जल से भरी

उम्र में मुझसे बड़ी

अब भी जवानमुझे भी बनाये जवान।


समझ में आता है कि यह कोई और नदी नहीं केन नदी है। नगर बाँदा  है। केन बाँदा  से मुहब्बत नहीं करती। बाँदा के लोग केन से मुहब्बत करते हैं, क्योंकि उसमें नहाकर गर्मी में ताजगी पाते हैं। केदार भी केन से प्रेम करते हैं। किन्तु इन्द्रिय बोध और अंतरंगता के साथ। केन अपने स्वरूप में जैसी है, है। किन्तु कविताओं में वह बदल जाती है। वह प्रकृति की एक इकाई मात्र हंै, पर प्रकृति की अन्य इकाइयाँ उससे जुड़ी हुई है, कुछ समय-समय पर आकर उससे जुड़ जाती हैं। बादल, बिजली, वर्षा-तूफान से भी वह घिर जाती है। कगार, खेत, बालू रंगीन पत्थर, तट की घास-झाड़ियाँ और पेड़ उसके इर्द गिर्द है। ये सारी चीजें कवि की अनुभूति पर असर डालती है, उसे संवेदनशील बनाती है। इसीलिए कविता में वह अनेक रूप धारण कर लेती है। बहुआयामी हो जाती है। उसका मानवीकरण हो जाता है। कभी वह दिखती है उदास, कभी चट्टानों को तोड़ने वाली, कभी म्यान से खिंची तलवार, कभी नृत्य नाद की नटी, कभी उसके देह में सूरज उगता है, कभी उस पर पारदर्शी चाँदनी छिटकती है। कभी वह स्त्री होने का आभास देती है और कभी किसी के नहाने पर अपना रंग बदल लेती है। केदार की कविताओं से यह भासित होता है-


चली गयी है

कोई श्यामा आँख बचाकर,

नदी नहाकर कांप रहा है अब तक व्याकुल

विकल नील जल।

पानी, पड़ा भँवर में नाचे,

नाव किनारे थर-थर काँपे,

चिड़िया पार गयी,नदियाँ हार गयी


टुनटुनियाँ पहाड़ शहर में है। केन उससे लगभग तीन मील पर बहती है।(नागार्जुन ने इसी पहाड़ से पूरे बाँदा  को देखा है।) केदार केन और पहाड़ को एक दृश्य उपस्थित करके जोड़ते हैं। (बल्कि बाँदा  को भी।) यथा-


अपनी बिजली की तलाश में

निकला बादल

चलते-चलते इस नगरी के महाकाश में

आयादेखा उसने केन किनारे

आबादी में वामदेव के मंदिर तक में

(यह मंदिर पहाड़ पर स्थित है।)

कहीं न पाकर

अपनी बिजली ऐसा रोया,

जैसे रोये राम विरह में

बड़ी देर तकआँसू बरसे

खड़े पेड़ सब भीगे।


कविता में ऐसा क्यों होता है ? इर पर कवि के कथन पर ध्यान देने की जरूरत है। वह कहता है- कविता मूर्त जगत् का दूसरा अस्तित्व है। यह दूसरा अस्तित्व है। यह दूसरा अस्तित्व तब प्रकट हो सका जब मूर्त जगत् की वस्तुवत्ता का मानवीयकरण हो गया। मानवीयकरण के समय वस्तुवत्ता आत्मपरकता के द्वन्द्व में आई और फिर रचना प्रक्रिया के दौरान सम्बद्धता पाकर रूपायति हुई। …बन गयी कविता में व्यक्त वस्तुवत्ता मूर्त जगत् का आभास कराती है।इस कविता में एक और बिम्ब देखिए-


मेरे अन्दर है

एक बकरी पेट के लिए

पहाड़ पर चढ़ने वाली

बादलों से न डरने वाली

घास खाकरनीचे

उतर आने वाली

और फिर और उसी बंधन में

बँधे बँधे मासूम मिमियाने वाली

करूण कातर।


वियतनामी कवि ताहु ने लिखा है- शोषित प्रजा की अवशता का वर्णन  भी देशभक्ति है। यह बकरी भी बाँदा  की शोषित प्रजा का ही प्रतीक है। केदार की कविता में ऐसे जन चित्र भरे पड़े हैं –


(1)

बीबी बच्चे घर की माया सबकी

दुनियादारी तज के सूरज डूबे-

छुट्टी पा के जिन्दा रहने से उकता के

चेतू ने बेहद ठर्रा पी।

(2)

देवी के बैल कोई खोल ले गया,

रस्सी समेत कोई चोर ले गया।

बेटों की जोट कोई मार ले गया,

आँखों में आँसू की धार दे गया।।

(3)

पंचों सुनो खबरिया,रज्जू लड़ा मुकदमा

घर का नाज निकल बरतन से

चूल्हा-चक्की जाँता सबसे

नाता-रिश्ता ममता तज के

बिका भाव बेभाव पहुँचकर बीच बजरिया।

(4)

पैदा हुई गरीबी में,पाली गयी गरीबी में।

ब्याही गयी गरीगी में,माता हुई गरीबी में।।

(5 )

खाली रही गरीबी से,

जीती रही गरीबी से,

सब दिन पिसी गरीबी से,

सब दिन लड़ी गरीबी से।।


‘अब पेट खलाये फिरता है , जोखू बाजी हार गया’, ‘चंदू चना चबैना खाता,’ ‘दीन दुखी यह कुनबा बाप बेटा बेचता है,’ ‘गाँव की औरतें,’ ‘रनिया,’  ‘दपर्ण टूटे’ ‘यह लड़की मुक्त युवती’ जैसी कविताएँ इस कड़ी की सशक्त कविताएँ है। नितांत मौलिक। प्रगतिशीलता से विरचित बाँदा  की धरती, के जन। इन चरित्रों के चित्रण में कवि की अंतरंगता जब बढ़ जाती है तो सहसा कविता में बाँदा  की बोली की श्रुति ध्वनियों का पुट मिल जाता है, जिससे कविता का लालित्य बढ़ जाता है-


उनको। महल मकानी हमको।

छप्पर-छानीउनको।

दाम दुकानीहमको। कौड़ी कानी।


प्रकृति का मानवीयकरण करने में कवि को शुरू से रूचि थी। केन हो, पेड़ हो, फूल हो या हवा मानवीकरण से संपृक्त हैं। युवा अवस्था में स्वास्थ लाभ के लिए कर्वी में रहना पड़ा था। दाहिना हाथ सुन्न पड़ गया था। मालिश कराने चंद्र गहना  बाग चले जाते थे। वहाँ विश्राम भी करते और घूम-घूमकर आस-पास की प्रकृति से प्रभाव भी ग्रहण करते। वहीं पास ही कोई छोटी पहाड़ी थी वहाँ बैठकर वसंती हवा कविता लिखी। एक नटखट युवती के रूप में हवा दिखती है। जब जहाँ चाहती घूमती है। नदी में रेत में, गाँव बस्ती में, महुए के पेड़ में चढ़ जाती। गेहूँ के खेतों पर लहरा मारती है। अलसी के फूल की कलसी गिराने की कोशिश करती है, न जाने कितनी क्रियाएँ करती है। इस कविता को समझने में त्रिलोचन की दो पंक्तियाँ बहुत मदद करती हैं-


भाषा की लहरों में जीवन की हलचल हैध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।
दूसरी कविता, जो बहुत चर्चित है ‘चन्द्रगहना से लौटती बेर’ भी वहीं लिखी गयी थी। यह कविता चित्रकूट के तलहटी क्षेत्र का पूरा भू-दृश्य है जिसमें शीश पर मुरैठा बाँधे चना का पौधा है, हठीली अलसी है, सयानी सरसों है, पोखर है, पानी में टाँग डाले बगुला है। मछलियों का झपट्टामार पानी से निकालने वाली सफेद पंखों और काले माथे वाला चिड़िया है। यह चित्रकूट क्षेत्र की वनस्थली का आभास कराती है। वह चित्रकूट जो कालिदास बाल्मीकि और तुलसी के काव्य में मौजूद है तो केदार की कविता में भी है, जो आज का चित्रकूट है- चित्रकूट की अनगढ़ चैड़ीकम ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँहर दिशाओं तक फैली हैंबांझ भूमि परइधर-उधर रीवां के पेड़कांटेदार कुरूप खड़े हैंसुन पड़ता हैमीठा मीठा रस टपकातासुग्गे का स्वरटें टें टें……..।सुन पड़ता हैवनस्थली का हृदय चीरताउठता गिरतासारस का स्वर टिरटों…………टिरटों।


केदार की कविताओं में घनहा खेत और वर्षा का वर्णन खूब मिलता है। बाँदा  में किसान की समृद्धि धान की उपज से जुड़ी है। उपज वर्षा से होती है।  वर्षा न हो तो अकाल। किसान की दुर्दशा। मुझे ऐसा लगता है कि कवि के मन से बाँदा  के किसान की खुशहाली का भाव बहुत प्रबल है। किसान खुश  हो तो कवि भी खुश-


(1)

अबकी धान बहुत उपजा है

पेड़ इकहरे दुगुन गये हैं

धरती पर लद गयी फसल है।


(2)

आये हो तो,

घुमड़ घुमड़कर नीचे आकर

इन धनहा खेतों के ऊपर

अनुकम्पा का झलामार

जी उड़ेल कर

झम झम झम बरसो।

इतना ही नहीं कवि हरा धान देखकर किसान से ज्यादा प्रसन्न दिखाता है-आह! मंै। होता हरा धानशीश पर ताने आसमान।


केदार की स्थानीयता देखकर सूर की स्थानीयता याद आ जाती है। वहाँ बृज की भूमि है, तो यहाँ बाँदा  की। कवि यहाँ के किसानों के जीवन की चिंताओं से अपनी किसान-चेतना निर्मित करता है और संघर्ष से जोड़ने की कोशिश करता है। यही कवि का लोक-भाव है।


केदार की सृजनशीलता का उनके गाँव से गहरा संबंध हैं। सामाजिक अस्मिता का बोध, प्रकृति प्रेम, नारी सौन्दर्य बोध काव्य परम्परा का बोध गाँव से ही जुड़े हैं, केदार जी के गाँव का समाज राष्ट्रीय आंदोलन और आर्य समाज से प्रभावित था। पिता पद्माकर की परम्परा के कवि थे। केदार ने उनके सहयोग से पद्माकर पढ़ा। पद्माकर बाँदा के थे। रीतिकाल के कवियों ने तो नारी सौन्दर्य पर ही कविताएँ लिखी है। एक जगह पर कवि ने कहा है कि स्त्री सौन्दर्य तो मुझे अपनी काव्य परम्परा से मिला। पिता छायावाद को पसंद नहीं करते थे। उसके विरूद्ध एक कवित्त लिखा था, जिसको निराला ने मतवाला में छापा था। पिता स्वयं नारी सौन्दर्य के कवि थे।

सरसों सरसी सहसी उपमा/उपमा कलिका, कल केसर की।

जरकी बरकी। जर जेवर की। द्रुति दून दिये वर बेसर की।

ऐसी कविताएँ लिखतेे थे। बाहर भी जाते तो केदार को अपने साथ ले जाते थे। बालेन्दु उपनाम से केदार ने कवित्त, सवैया,छंद में कविताएँ लिखी हैं। अपने गाँव के अनुभवों के बारे में कवि कहता है- मुझे गाँव में रहकर अपने देश की ऋतुओं का पूरा परिचय मिल चुका था।……बरसात में बरसते पानी में भीगकर मैं भीतर तक बादल और बिजली की क्रीड़ाएँ भर लेता था।…..वसंत आने पर टेसू के फलों की आग को आँखों से पीकर अपनी आग बना लेता था।…..मेरी कविता भी मेरी तरह मेरे साथ-साथ वैसे हीे संबंधों और संपर्को से और वैसी ही अवगतता से रूपायित होती रही।
गाँव के बारे में उनकी दो बड़ी कविताएँ हैं- कमासिन- टिमटिमाती लालटेन की तरह इस कविता में गाँव के विकास को कृषक-सभ्यता से जोड़कर देखा गया है। दूसरी कविता प्रेमतीरथ है, जो आत्मकथात्मक है और पत्नी को संबोधित है। उसमें कवि अपने गाँव समाज का वर्णन करता है, साथ ही नारी सौन्दर्य के आकर्षण पर भी संकेत करता है। तालाब के किनारे पत्थर पर जो आलिंगनबद्ध मूर्ति है उस पर विस्तार से लिखा है।

सुधी पाठकों को केदार की कविता में अनेक बिम्ब खजुराहों की मूर्तियों की मुद्रा में मिलते है। शायद युवा अवस्था मंे इस मूर्ति ने कवि मानस पर गहरा असर छोड़ा है। यह कविता काल्पनिक (आयडियल) कविता के विरूद्ध है। छपने  पर हलचल भी हुई थी, कविता की आखिरी पंक्तियों से यह सिद्ध भी हो जाता है-$  $  $ओंठ ओंठ को चूस रहे हैंआँखें बंद निशा फैली है प्यारी देखो यही मूर्तियाँसब नर-नारी पूज रहे हैंप्रेमालिंगन सीख रहें हैंआओ हम तुम इन्हें पूज लें यहीं प्रेम-तीरथ है प्यारी देव और मानव दोनों का।

पाठक का अनुमान गलत नहीं है। मूर्ति का प्रतिबिंबन का आभास इस कविता में भी होता है-

दर्पण में खड़ी हो तुम

वसन्तोत्सव की मुद्रा में

फेंक कर पीछे

शीश से उतर कर नीचे

आता अंधकार देखकर

मुझे हो रहा है प्यार


केदार जी सुडौल गौर वर्ण के थे, पत्नी श्याम वर्ण की। अंतरंगता के क्षणों में लिखी इस कविता में आप इन्हें ढूँढ़ सकते हैं-


तुम पड़ी हो शान्त सम्मुख

स्वप्रदेही दीप्त यमुना

बांसुरी का गीत जैसे

पाॅखुरी पर

पौ फटे की चेतना

जैसे क्षितिज पर।


कवि की ‘हे मेरी तुम’ नाम से लिखी गयी सारी कविताएँ पत्नी को ही संबोधित है। उनमें रूप सौन्दर्य और प्रेम की ही कविताएँ नहीं है आपसी दुख-सुख और घर-गृहस्थी से जुड़ी भावनाओं की भी कविताएँ हैं-

(1)

सोप केस में सोप नहीं था

एक बूँद भी तेल नहीं था

कंधा परसों टूट चुका था

मेजपोश पर धूल जमी थी

पुस्तक पर प्याला बैठा था

कापी पर औंधा गिलास था

पैसे की डिबिया में पैसा एक नहीं था

आलू और प्याज नहीं था

लालटेन अंधी जलती थी

हाय राम मेरी आफत थी

अब बोलो तुम कब आओगी घर संवारने

(2)

हे मेरी तुम,कुछ न हुआ,

अब बूढ़ा हुआ सुआ।

पखने हुए भुआ।

देखो, काल दुका,मन सहमा,

तन कांपा और झुका।


केदार की प्रेम कविताएँ स्वकीया प्रेम कविताएँ है। यह सच है। स्वकीया प्रेम की अभिव्यक्ति ग्राम्य गीतों में खूब होती है। केदार जी के उसी स्त्री का सौन्दर्य बहुत आकर्षिक करता है, जो खूब काम करती है। ऐसी स्त्रियाँ गाँव में ही अधिक होती है,  जो शारीरिक श्रम करती है। उनका वर्णन विकार रहित मन से पूरी तन्मयता से हुआ है। जैसे-


घास छीलते हुए, छलकती हुई हँसी सेखुरपी का स्वर धरती का स्वर बन जाता है स्वर का तम्बू बन के ऊपर तन जाता हैतम्बू के नीचे सुख सागर लहराता है बीस बरस की यह नवयुवती सुख सागर।
उन्हें चित्र में भी कोई स्त्री अच्छी लगती है, तो कविता लिखते हैं। उनके कमरे में रूसी थियेटर की अभिनेत्री ऐलेना प्रीवलोवा का चित्र लगा था, लगा था उस पर उन्होंने कविता लिखी-


तुम हो। एक मौन लावण्य में लीन लावण्य से

उद्भूत स्वर और व्यंजनों का।

अमूर्त पूर्व संगमतुम हो रूपोल्लास।


कश्मीर में लड़ती एक दूध बेचने वाली लड़की का चित्र देखकर उसकी प्रशस्ति में कविता लिखी है-


जोनी!तेरी बड़ी उमर होतू जिन्दा रहकर मुस्काये

काश्मीर सब खुशी मनाये केसर क्यारी स्वर्ण लुटाये।


नींद के बादल कवि का पहला काव्य संग्रह है। उसमें स्थानीयता है। केन है। इसमें प्रेम और रोमांस है। किन्तु रूग्ण मन का रोमंस नहीं है। कविताओं में वैचारिक गुंजल्क भी नहीं है। नारी के सौन्दर्य और साहचर्य की सहज अभिव्यक्तियाँ हैं। रचाव में सहजता और संश्लिष्टता है-


प्यारी जल में चांद चमकता

स्रिता के स्तन पर अपना सिर धर हँसता

अपने वक्षस्थल पर,

जिस पर वस्त्र न टिकता

मुझको भी रखने दो अपना सिर धर हँसता।


बातचीत के दौरान उन्होंने मुझसे विदेशी कवयित्री सैफो का जिक्र किया था, कानपुर में उनके मित्र बालकृष्ण बलदुआ जी रहते थे, उन्हीं के यहाँ सैफो की रचनाएँ पढ़ी थी और बहुत अभिभूूत हुए थे। नींद के बादल की कविताओं में उसके प्रभाव को भी स्वीकारा था, किन्तु कवि के संपूर्ण व्यक्त्वि से हंगरी के कवि सैंडर पेटाफी का व्यक्त्वि बहुत मिलता-जुलता है। यद्यपि इस कवि का जन्म 1823 में हुआ था। पेटाफी को भी डेन्युव नदी के किनारे बना अपना घर बहुत पसंद था, जिसमें रहकर वह अपना जीवन यापन करता था। केदार भी अपने घर को बहुत प्यार करते है-


मैं इस खण्डहर में रहता हूँ

नित्य नीम के फूल सूँघ कर
नीम के पेड़ परचढ़़ी बैठी।

आज/अपना जन्म दिन मनाती हैं

/सखी सहेलियों के साथ

अल्हड़ गिलहरी/जैसे कोई राजकुमारी।


पेटाफी को अपने सपाट समतल मैदान पसंद थे। वनचारी जानवर, लहलहाती फसलें और कुबड़े पेड़ो का जंगल बहुत पसंद थे। पेटाफी अपनी पत्नी जुलीस्का से अथाह प्रेम करता है। अपने प्रेम को खुलकर व्यक्त करता है जैसा कि केदार करते हैं-


क्या कहूँ मैं तुमसे

स्पर्श करते हैं जब मेरे ओंठ तुम्हारे ओठों के

दहकते पद्म राग और आग के एक चुंबक में

हमारी आत्माएँ एक हो जाती हैं

द्रवीभूत होकर वैसे ही कि

जैसे अरूणोदय से द्रवीभूत होकर

अंधकार दिवस में बदल जाता है।


वह भी प्रेम की अभिव्यक्ति खुलकर करता है, जैसे कि केदार करते हैं- उसने कहा- कि लोग उसके खुलेपन से रूष्ट होंगे, क्योंकि दुनियाँ तो पाखंडी है। वह अपने समय का क्रांतिकारी कवि हैं, केदार अपने समय के। केदार ने पाब्लो नेरूदा का अनुवाद किया। वाल्टहिट मैन और नाजिम हिकमत को भी बहुत पसंद करते थे। पर जिन कवियों पर बड़े मन से लेख लिखे है, वे हैं सेंडर पेटाफी। इस पहलू को लेकर दोनों कवियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। यह काम कृष्ण मुरारी पहाड़िया कर सकते थे, क्योंकि उन्होंने पेटाफी की कविताओं का अनुवाद भी किया था। केदार जी से कवि के बारे में संवाद भी। जब मैं बाँदा जाता, तो इस कवि के बारे में बातें किया करते थे। वर्षों बाद पेटाफी की कविताओं का अनुवाद उन्ननयन पत्रिका के साथ पुस्तिका रूप में छपा भी। मुरारी अब इस संसार में नहीं है, वर्ना अपने मन की बात उससे जरूर कहता। बाबूजी की इस कविता के साथ उसे याद करने का मन हो रहा है-


पक्षी जो एक

अभी अभी उड़ा

और एक बोलती लकीर-सा

अभी अभी

नील व्योम वक्ष में

समा गया।

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