रा सा यानी राहुल सांकृत्यायन / शम्भूनाथ शुक्ल
रा.सा. ही बने रहे राहुल सांकृत्यायन!
राहुल संकृत्यायन के बचपन का नाम था केदार नाथ और पिता का नाम गोबर्धन। चूंकि वे ब्राह्मणों के पांडेय कुल में पैदा हुए इसलिए नाम पड़ा- केदारनाथ पांडेय। अपने नाना रामशरण पाठक के यहाँ ही यह बालक उनके गाँव पंदहा में अक्सर रहता था। नाना चूँकि फौज में रह चुके थे, इसलिए ब्राह्मणी परंपरा के विरुद्ध वे सामिष भोजी थे। केदार को सामिष भोजन पसंद भी था, इसलिए जब छपरा के परसा मठ के महंत इस बालक को अपने मठ का उत्ताधिकारी बना कर ले गए, तो नाम रखा- रामोदार दास (यानी राम जी का उदर अथवा पेट) साधु। इस मठ की ओर से वे दक्षिण भारत गए। मदरास, तिरुमाला, मदुरै सब घूमे। वहां उन्होंने एक तो तमिल सीख ली और सारस्वत संस्कृत व्याकरण तथा ‘हिन्दू’ पढ़कर अंग्रेजी। बाद में वे सनातन छोड़कर आर्यसमाज में आए। आगरा के आर्य मुसाफिर पाठशाला में मौलवी महेश प्रसाद से अरबी-फ़ारसी सीखी और जल्द ही आर्य समाज छोड़कर बौद्ध बन गए तथा नाम रखा राहुल संकृत्यायन।
राहुल गौतम बुद्ध के बेटे का नाम था. सांकृत्यायन बालक केदार के गोत्र का नाम था। इस तरह बाबा रामोदार दास (रा.सा.) बौद्ध बन कर भी वे रा.सा. (राहुल संकृत्यायन) ही रहे। तिब्बत गए और वहां से तमाम बौद्ध ग्रन्थ चोरी-छिपे जान पर खेलकर लाये तथा पटना आकर इतिहासकार एवं पुरातत्त्वविद केपी जायसवाल को सौंप दिए। फिर मार्क्सवादी हो गए। मार्क्सवादियों की जड़ता, उनकी अल्पसंख्यक नीति और भाषा के सवाल पर उनके ढुलमुल रवैये को छोड़कर वे फिर से वहीँ आ गए, जहाँ से चले थे। वे जीवन भर घूमते रहे। पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने तक। उन्होंने सब कुछ बदला, नहीं बदला तो अपना भाषा प्रेम। उन्होंने लिखा है- ’’मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला, संप्रदाय बदला लेकिन हिन्दी के संबंध में मैंने विचारों में कोई परिवर्तन नहीं किया।“
हिंदी के बाबत उन्होंने लिखा है- “हिंदी, अंग्रेजी के बाद दुनिया के अधिक संख्यावाले लोगों की भाषा है। इसका साहित्य 750 इसवी से शुरू होता है और सरहपा, कन्हापा, गोरखनाथ, चन्द्र, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, बिहारी, हरिश्चंद्र, जैसे कवि और लल्लूलाल, प्रेमचंद जैसे लेखक दिए हैं इसका भविष्य अत्यंत उज्जवल, भूत से भी अधिक प्रशस्त है। हिंदी भाषी लोग भूत से ही नहीं आज भी सब से अधिक प्रवास निरत जाति हैं। गायना (दक्षिण अमेरिका), फिजी, मर्शेस, दक्षिण अफ्रीका, तक लाखों की संख्या में आज भी हिंदी भाषा भाषी फैले हुए हैं।”
राहुल जी बेजोड़ घुमक्कड़ थे, वे लिखते हैं- “मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़–फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया। जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुत: तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं।
आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूक को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते।“
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(राहुल पर संस्मरण अभी जारी हैं)