कवि केदार का बांदा

पिछली सदी के सातवें दशक के शुरूआती सं 72 – 73  के बाद के साल …चारो ओर धूम थी कवि केदार की !…कवि केदार कितने बड़े कवि थे …ये तब हमलोग नहीं जानते समझते  थे …हाँ इतना जरूर समझते थे कि जब इनसे इतने बड़े – बड़े कवि साहित्यकार लोग मिलने आते हैं तो ये भी उतने बड़े तो होंगे ही ।

बांदा में कवि केदार की अगुआई में तब ‘ प्रगतिशील सम्मलेन ‘ हो चुका था …देश भर के तमाम साहित्य प्रेमी बांदा की मिट्टी के आतिथ्य का स्वाद ले चुके थे । केदार बाबू के साथ डॉ रणजीत अपने तीखे तेवर के साथ वातावरण में ओज भर रहे थे . … डॉ चंद्रिका प्रसाद का कविताई का अपना अंदाज़ ही निराला था .  कृष्ण मुरारी पहारिया  और  अहसान आवारा अपनी कविता से अधिक हम जैसे नए लोगों की कविताओं को सवांरने में अधिक रूचि लेते थे . कितने नाम …मोजेस माइकल , रामशंकर मिश्र , राम आसरे  , जयकांत , गोपाल गोयल , आनंद सिन्हा , अनिल शर्मा …!कवि केदार और नागार्जुन की अंतरंगता के किस्से बड़े आमफहम हैं ।दोनों ने एक दूसरे के लिए अपने मानोंभाव बड़े काव्यात्मक अंदाज़ में प्रस्तुत किये हैं — नागार्जुन जी की कविता में जिन …इकबाल और मुरारी का जिक्र आता है वे इकबाल अजित पुष्कल और मुरारी , कृष्ण मुरारी पहारिया जी हैं ।  इसी कविता मे कैमरे के साथ जिस मुन्ना का जिक्र आता है वे केदार बाबू के सिनेमेट्रोग्राफर सुपुत्र अशोक कुमार हैं  । ये साउथ इंडियन फ़िल्म इंडस्ट्री के नामी सिने फोटोग्राफरों में शुमार रहे हैं ।मेरे फूल केन को देना … गंगा से मेरा क्या नाता केदार परंपरा के  कवि – कृष्ण मुरारी पहरिया की काव्य रचना  है ।

नागार्जुन


 ये है वो कविता जो नागार्जुन कवि केदार के प्रति व्यक्त करते हैं –

ओ जन-मन के सजग चितेरे

हँसते-हँसते, बातें करते

कैसे हम चढ़ गए धड़ाधड़

बंबेश्वर के सुभग शिखर पर

मुन्ना रह-रह लगा ठोकने

तो टुनटुनिया पत्थर बोला —

हम तो हैं फ़ौलाद,

समझना हमें न तुम मामूली पत्थर

नीचे है बुंदेलखंड की रत्न-प्रसविनी

भूमिशीश पर गगन तना है

नील मुकुट-सानाहक़

नहीं हमें तुम छेड़ो

…फिर मुन्ना कैमरा खोलकरउन

चट्टानों पर बैठे हम दोनों की

छवियाँ उतारता रहा देर तकनीचे देखा :

तलहटियों में छतों और खपरैलों वाली

सादी-उजली लिपी-पुती दीवारोंवाली

सुंदर नगरी बिछी हुई है

उजले पालों वाली नौकाओं से शोभित

श्याम-सलिल सरवर है

बाँदानीलम की घाटी में

उजला श्वेत कमल-कानन है बाँदा!

अपनी इन आँखों पर मुझको

मुश्किल से विश्वास हुआ था

मुँह से सहसा निकल पड़ा—

क्या सचमुच बाँदा इतना सुंदर हो सकता है

यू.पी. का वह पिछड़ा टाउन

कहाँ हो गया ग़ायब सहसा

बाँदा नहीं, अरे यह तो गंधर्व नगर है…

उतरे तो फिर वही शहर सामने आ गया!

अधकच्ची दीवारोंवाली

खपरैलों की ही बहार थी

सड़कें तो थीं तंग किंतु जनता उदार थी

बरस रही थी मुस्कानों से विवश ग़रीबी

मुझे दिखाई पड़ी दुर्दशा ही चिरजीवी

ओ जन-मन के सजग चितेरे

साथ लगाए हम दोनों ने बाँदा के पच्चीसों फेरे

जनसंस्कृति का प्राणकेंद्र

पुस्तकागार वह

वयोवृद्ध मुंशी जी से जो मिला प्यार वह

केन नदी का जल-प्रवाह,

पोखर नवाब का

वृद्ध सूर्य के चंचल शिशु भास्वर

छायानट सांध्य घनों की

सतरंगी छवियों का जमघट

रॉड ज्योति से भूरि-भूरि आलोकित स्टेशन

वहीं पास में भिखमंगों का चिर-अधिवेशन

काग़ज़ के फूलों पर ठिठकी हुई

निगाहें बसें छबीली,

धूल भरी वे कच्ची राहें

द्वारपाल-सा जाने कब से

नीम खड़ा था

ताऊजी थे बड़े कि जाने वही बड़ा था

नेह-छोह की देवी,

ममता की वह मूरत

भूलूँगा मैं भला बहूजी की वह सूरत?

मुन्नू की मुस्कानों का प्यासा बेचारा

चिकना-काला मखमल का वह बटुआ प्याराजी,

रमेश थे मुझे ले गए केन नहाने

भूल गया उस दिन दतुअन करना क्यों

जाने शिष्य तुम्हारे

शब्द-शिकारी तरुण-युगल इक़बाल-मुरारी!

ऊँचे-ऊँचे उड़ती प्रतिभा थी

कि परी थी मेरी ख़ातिर

उनमें कितनी ललक भरी थी

रह-रह मुझको याद आ रहे मुन्ना

दोनोंतरुणाई के ताज़ा टाइप थे

वे मोनो बाहर-भीतर के वे

आँगनफले पपीतों की वह बगिया

गोल बाँधकर सबका वह ‘दुखमोचन’

सुनना कड़ी धूप, फिर बूँदाबाँदी

फिर शशि का बरसाना चाँदी

…चितकबरी चाँदनी

नीम की छतनारी डालों से

छन-छन कर आती थी

आसमान था साफ़, टहलने निकल पड़े हम

मैं बोला : केदार, तुम्हारे बाल पक गए!

‘चिंताओं की घनी भाफ में सीझे जाते हैं बेचारे’

—तुमने कहा, सुनो नागार्जुन,

दुख-दुविधा की प्रबल आँच में

जब दिमाग़ ही उबल रहा हो

तो बालों का कालापन क्या कम मखौल है?

ठिठक गया मैं, तुम्हें देखने लगा ग़ौर से

…गौर-गेहुँआ मुख-मंडल चाँदनी रात में चमक रहा था

फैली-फैली आँखों में युग दमक रहा था

लगा सोचने

—तुम्हें भला क्या पहचानेंगे बाँदावाले!

तुम्हें भला क्या पहचानेंगे साहब काले!

तुम्हें भला क्या पहचानेंगे आम मुवक्किल!

तुम्हें भला क्या पहचानेंगे शासन की नाकों पर के तिल!

तुम्हें भला क्या पहचानेंगे ज़िला अदालत के वे हाकिम!

तुम्हें भला क्या पहचानेंगे मात्र पेट के बने हुए हैं

जो कि मुलाज़िम!

प्यारे भाई, मैंने तुमको पहचाना है

समझा-बुझा है, जाना है

…केन कूल की काली मिट्टी,

वह भी तुम हो!

कालिंजर का चौड़ा सीना,

वह भी तुम हो!

ग्रामवधू की दबी हुई कजरारी चितवन,

वह भी तुम हो!

कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें,

वह भी तुम हो!

खड़ी सुनहली फ़सलों की छवि-छटा निराली,

वह भी तुम हो!

लाठी लेकर कालरात्रि में करता जो उनकी रखवाली

वह भी तुम हो!

जनगण-मन के जाग्रत शिल्पी,

तुम धरती के पुत्र :

गगन के तुम जामाता!

नक्षत्रों के स्वजन कुटुंबी, सगे बंधु

तुम नद-नदियों के!

झरी ऋचा पर ऋचा

तुम्हारे सबल कंठ से

स्वर-लहरी पर थिरक रही है

युग की गंगाअ जी,

तुम्हारी शब्द-शक्ति ने बाँध लिया है

भुवनदीप कवि नेरूदा को

मैं बड़भागी, क्योंकि प्राप्त है मुझे तुम्हारा निश्छल-निर्मल भाईचारा

मैं बड़भागी, तुम जैसे कल्याण मित्र का

जिसे सहारा मैं बड़भागी,

क्योंकि चार दिन बुंदेलों के साथ रहा हूँ

मैं बड़भागी, क्योंकि केन की लहरों

कुछ देर बहा हूँ

बड़भागी हूँ,

बाँट दिया करते हो हर्ष-विषाद

बड़भागी हूँ, बार-बार करते रहते हो याद।

चित्र में कवि केदारनाथ अग्रवाल प्रसिद्ध आलोचक डॉ राम विलास शर्मा जी साथ हैं ।

नागार्जुन के बाँदा आने पर कवि केदार की काव्य प्रस्तुति देखिए –


उसकी स्मृति अब भी बेले-सी महक रही है,

उस दिन का आनंद आज कालिदास का छंद बना मन मोह रहा है,

मुक्त मोर बन श्याम बदरिया भरे हृदय में,

दुपहरिया में, शाम-सबेरे नाच रहा है,

रैन-अँधेरे में चंदनियाँ बाँह पसारे,

हमको, सबको भेंट रहा है।


संभवतः उस दिन मेरा नव जन्म हुआ था

,संभवतः उस दिन मुझको कविता ने चूमा,

संभवतः उस दिन मैंने हिमगिरि को देखा,

गंगा के कूलों की मिट्टी मैंने पाई,

उस मिट्टी से उगती फ़सलें मैंने पाईं,

और उसी के कारण अब बाँदा में जीवित रहता हूँ,

और उसी के कारण अब तक कविता की रचना करता हूँ,

और तुम्हारे लिए पसारे बाँह खड़ा हूँ,

आओ साथी गले लगा लूँ,

तुम्हें, तुम्हारी मिथिला की प्यारी धरती को,

इसमें व्यापे विद्यापति को,

और वहाँ की जनवाणी के छंद चूम लूँ,

और वहाँ के गढ़-पोखर का पानी छू कर नैन जुड़ा लूँ,

और वहाँ के दुखमोचन, मोहन माँझी को मित्र बना लूँ,

और वहाँ के हर चावल को हाथों में ले हृदय लगा लूँ,

और वहाँ की आबहवा से वह सुख पा लूँ

जो नृत्यों में नाचा जा कर कभी न चुकता,

जो आँखों में आँजा जा कर कभी न चुकता,

जो ज्वाला में डाला जा कर कभी न जलता,

जो रोटी में खाया जा कर कभी न कमता,

जो गोली से मारा जा कर कभी न मरता,

जो दिन दूना रात चौगुना व्यापक बनता,

और वहाँ नदियों में बहता,नावों को ले आगे बढ़ता,

और वहाँ फूलों में खिलता,बागों को सौरभ से भरता।


अहोभाग्य है जो तुम आए मुझसे मिलने,

इस बाँदा में चार रोज़ के लिए ठहरने,

अहोभाग्य है मेरा, मेरे घर वालों का,

जिनको तुम स्वागत से हँसते देख रहे हो।

अहोभाग्य है इस जीवन के इन कूलों का

,जिनको तुम अपनी कविता से सींच रहे हो।

अहोभाग्य हैं हम दोनों का,

जिनको आजीवन जीना है काव्य-क्षेत्र में।

अहोभाग्य है हम दोनों की इन आँखों का,

जिनमें अनबुझ ज्योति जगी है अपने युग की।

अहोभाग्य है दो जनकवियों के हृदयों का

जिनकी धड़कन गरज रही है घन-गर्जन-सी।


अहोभाग्य है कठिनाई में पड़े हुए प्रत्येक व्यक्ति का,

जिनका साहस-शौर्य न घटता।

अहोभाग्य है स्वयं उगे इन सब पेड़ों का,

जिनके द्रुम-दल झरते फिर-फिर नए निकलते।

अहोभाग्य है हर छोटी चंचल चिड़िया का,

जिनका नीड़ बिगड़ते-बनते देर न लगती।

अहोभाग्य है बंबेश्वर की चौड़ी-चकली चट्टानों का,

जिनको तुमने प्यार किया है, सहलाया है।

अहोभाग्य है केन नदी के इस पानी का,

जिसकी धारा बनी तुम्हारे स्वर की धारा।

अहोभाग्य है बाँदा की इस कठिन भूमि का,

जिसको तुमने चरण छुला कर जिला दिया है।

हम लोग केदार बाबू के साथ बड़े सहज होते थे …कोई भी , कैसी भी बात उनसे पूंछ लेते ….शाम स्टेशन रोड पर बीडी गुप्ता जी की केमिस्ट की दूकान पर वे रोज़ मिलते !…लिहाज़ तो भरपूर  होता पर अंदाज़ बे-तकल्लुफ होता ….वे अक्सर कहते …” अरे यार मौलिक – वौलिक कुछ नहीं होता … कवि-कलाकार सब यहीं समाज और प्रकृति  से बात उठाता है और काव्य में प्रस्तुत कर देता है …जो जितनी सहजता से यह काम कर लेता है वह रचनाकार उतना व्यापक होता है . विचारधारा रचनाकार की दृष्टि होती ….सब आसपास है ।हमें खबर लगी कि हमारे शहर कर्वी में मंदाकिनी तात पर मंदिर में बसंत पंचमी के अवसर पर कवि गोष्ठी होनी है । मैंने अपने साथियों से कहा , केदार बाबू की कर्वी ले चलेंगे । साथी हंसे , केदार बाबू , कर्वी जाएंगे , मंदिर में कविता पढ़ने  इसी बीच केदार बाबू आजाते है । मैंने उन्हें मंतव्य बताया । केदार बाबू बोले ,हम चलेंगे यार’ , तुम्हें पता है वहां तुम्हारे पुरानी बाज़ार के अग्रवालों के यहां हमारे बड़े भाई की ससुराल है । और क्या तुम्हें  यह भी है कि मेरी प्रसिद्ध कविता ‘ चंद्रगहना से लौटती बेर ‘ का  चंद्रगहना कहाँ है ?…तुम कर्वी से बस के रास्ते जब बांदा आते हो तो मंदाकिनी नदी पार करते ही दाहिने हाथ पत्थर का तीर देखते हो …लिखा है … ‘  चंद्रगहना ‘ पुरवा है ‘ …वहीं का वृतांत है हमारी इस  कविता में …में यहां हफ्तों पड़ा रहता था ।–

देखाआया चंद्र गहना।

देखता हूँ दृश्‍य अब मैं

मेड़ पर इस खेत पर मैं बैठा अकेला।

एक बीते के बराबर

यह हरा ठिगना चना,

बाँधे मुरैठा शीश पर

छोटे गुलाबी फूल का,

सज कर खड़ा है।

पास ही मिल कर उगी है

बीच में अलसी हठीली

देह की पतली, कमर की है लचीली,

नीले फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर

कह रही है, जो छूए यह,

दूँ हृदय का दान उसको।

और सरसों की न पूछो-

हो गई सबसे सयानी,

हाथ पीले कर लिए हैं

ब्‍याह-मंडप में पधारी

फाग गाता मास फागुन

आ गया है आज जैसे।

देखता हूँ मैं: स्‍वयंवर हो रहा है,

पकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है

इस विजन में,

दूर व्‍यापारिक नगर से

प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।

और पैरों के तले हैं एक पोखर,

उठ रही है इसमें लहरियाँ,

नील तल में जो उगी है घास भूरी

ले रही वह भी लहरियाँ।

एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा

आँख को है चकमकाता।

हैं कईं पत्‍थर किनारे

पी रहे चुपचाप पानी,

प्‍यास जाने कब बुझेगी!

चुप खड़ा बगुला डुबाए टाँग जल में,

देखते ही मीन चंचल

ध्‍यान-निद्रा त्‍यागता है,

चट दबाकर चोंच में

नीचे गले के डालता है!

एक काले माथ वाली चतुर चिडि़या

श्‍वेत पंखों के झपाटे मार फौरन

टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,

एक उजली चटुल मछली

चोंच पीली में दबा कर

दूर उड़ती है गगन में!

औ’ यही से-

भूमी ऊँची है जहाँ से-

रेल की पटरी गई है।

चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी

कम ऊँची-ऊँची पहाडि़याँ

दूर दिशाओं तक फैली हैं।

बाँझ भूमि पर

इधर-उधर रिंवा के पेड़

काँटेदार कुरूप खड़े हैं

सुन पड़ता है

मीठा-मीठा रस टपकता

सुग्‍गे का स्‍वर

टें टें टें टें;

सुन पड़ता है

वनस्‍थली का हृदय चीरता

उठता-गिरता,

सारस का स्‍वर

टिरटों टिरटों;

मन होता है-

उड़ जाऊँ मैं

पर फैलाए सारस के संग

जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है

हरे खेत में

सच्‍ची प्रेम-कहानी सुन लूँ

चुप्‍पे-चुप्‍पे। 

कविता का एक नया तेवर अवतार ले चुका था ….कवि केदार के ओजस्वी व्यक्तित्व का असर समाज की सभी इकाइयों पर पडा । …पत्रकारिता पर भी भरपूर असर पडा । कसबे के …मध्ययुग , बम्बार्ड , विश्व प्रभाकर, चित्रकूट समाचार    …जैसे अखबारों में अक्स दिखने लगा …और विकसित होने लगी पत्रकारिता में नयी पौध …जन-चेतना की धार …इसी धार और रफ़्तार से हम जैसे तमाम निकले ….!

राजू मिश्र ,मुकुंद  ,अरुण खरे …अपने आप में एक मिसाल हैं …बांदा  की पत्रकारिता के निखार और विस्तार का   !…बहुत घिसे गए …बहुत रगड़े गए…बहुत तराशे गए …जेब में छदाम नहीं लेकिन रुका कोई काम नहीं …!   

जनता पार्टी की सरकार आई … 77 – 78 का दौर था . बुंदेलखंड भयंकर  सूखे के दौर से गुज़र रहा था…बांदा जिला भी इससे अछूता नहीं था . इसी दौरान चित्रकूट में श्रमजीवी   पत्रकार सम्मेलन आयोजित हुआ .इससे भी यहाँ की पत्रकारीय चेतना को काफी निखार मिला . बांदा के जमुना बोस ग्रामीण विकास मंत्री थे … पर वो थे तो पुराने पत्रकार ही . बोस जी लम्बे समय तक पी टी आई के लिए काम करते रहें हैं ….  यह दौर ‘ रविवार ‘…’ दिनमान  ‘ …’ धर्मयुग ‘ जैसी पत्रिकाओं का उत्कर्ष काल था । …जागरण,आज,भारत और बाद के दौर का…अमृत प्रभात इलाके के प्रभावी अखबार थे । …कवि गोष्ठी वाले हमलोग पत्रकारों के लिए दोयम दर्जे के लोग हुआ करते थे …टाइम्स ऑफ़ इंडिया के …बी डी गुप्ता की तूती बोलती थी । …ए के सहगल और रामेश्वर गुप्ता का एक धडा था ….हम लोग संतोष दादा गैंग के थे…हर जगह पिले रहते थे …बम्बार्ड के विक्रमादित्य का खासा रुतबा था ….बड़ा चक्रव्यूह था …लेकिन इसमें कोई अभिमन्यु कभी मारा नहीं  गया …क्योंकि यहाँ की महाभारत के भीष्म और कृष्ण की मुखर भूमिका में  कवि केदार हमेशा तत्पर रहे .

  • टिल्लन रिछारिया

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